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गाथा
मैं तो भोली यूं कह्यो तू पोल में दीवलो जोल। बहु-सासजी! मैंने तो यह सुना कि सोड़ में दीया जला दो।
मैं तो सासूजी यूं सांभल्यौ तू सोड में दीवलो जोल। कुछ कहा जाता है और कुछ समझ लिया जाता है।
मां ने कहा-बेटा! तू ठीक से नहीं समझ पाया। सुधर्मा स्वामी ने यह कहा होगा जो समर्थ हो जाता है, शक्तिशाली होता है वह मुनि बन सकता है। उन्होंने यह नहीं कहा कि तू मुनि बन जा। ऐसा वे कहें, यह संभव ही नहीं है।
जात! प्रासाद में तुम सुकोमल मखमली शय्या पर सोते हो। साधु को धरती पर सोना होता है।
जात! आज तुम भोजन करते हो तो कनक कचोले सोने के कटोरे में भोजन मिलता है। सोने की थाली, सोने की कटोरियां और स्वादिष्ट भोजन। जब साधु बनोगे तो सोने की थाल नहीं मिलेगी, काठ की पात्री मिलेगी। कितना कठिन है इन काष्ठ के पात्रों में भोजन।'
सुकोमल सेज्जा छोड़ने रे हां, धरणी करणो संथार। मेरे नंदना।
कनक कचोला परहरे रे हां, काछलियां व्यवहार। मेरे नंदना। ___ उस युग में शायद पात्रों पर रंग-रोगन नहीं किया जाता था। आज साधु-साध्वियां बहुत सुन्दर पात्री बना देते हैं। उस युग में काष्ठपात्र लाते और अलसी का तेल चुपड़कर काम में ले लेते। कहां रोगन था, कहां हिंगलू था, कहां सफेदा था। कहां सुन्दर पात्र थे और कौन उन पर सुन्दर नामांकन और चित्रांकन करते थे।
मां ने कहा-'जात! क्या इन काष्ठपात्रों में आहार करना तुम्हारे लिए संभव है?'
'जात! क्या तुमने यह समझ रखा है कि यह साधुपन कोई नानी का घर है। जब मन हुआ, वहां गए और दही रोटी खा ली। आज तो वहां कहां दही है और कहां रोटियां? प्राचीन युग में ननिहाल के साथ दही-रोटी का संबंध जुड़ा हुआ था। संभवतः आज ननिहाल में भी दही-रोटी नहीं मिलती। आज तो इडलीडोसा, पाव-भाजी, पिज्जा-बर्गर न जाने कितने फास्ट फूड हैं, जिन्होंने दही-रोटी का स्थान ले लिया है और जो स्वास्थ्य को भी बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
मां ने कहा-'साधुपन कोई नानी का घर नहीं है, जहां जाकर दही-रोटियां खा लो।'
'जात! क्या साधु जीवन इतना सरल है कि तू यहां से जाकर तत्काल साधु बन जाएगा। तुम कितने भोलेपन की बात कर रहे हो। क्या तूने कभी किसी साधु को लोच कराते देखा है? तुम पहले साधु बनने की बात छोड़ दो। एक बार तुम केश लोच देख लो। मेरा विश्वास है-एक बार केश लोच देख लोगे तो स्वयं ही साधुपन की बात छोड़ दोगे। फिर कहोगे मैं साधु नहीं बनूंगा।' _ 'जात! तुम्हारी अवस्था बढ़ी है पर अनुभव नहीं बढ़ा है। क्या तुम्हें पता नहीं है कि साधु जीवन में कितने परीषह आते हैं। एक दो नहीं, बाईस परीषह सहन करने होते हैं। घर में तो सुबह भूख लगती है और तत्काल प्रातराश मिल जाता है। यहां पता ही नहीं कि भोजन कब मिलेगा? सूर्योदय के साथ आहार नहीं मिलेगा, नवकारसी से पहले आहार नहीं मिलेगा, प्रहर से पहले आहार नहीं मिलेगा।' १२६
परम विजय की