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गाथा परम विजय की
धार्मिक आदमी किसी का दुःख देखना नहीं चाहता। दूसरे को दुःखी वह बनाता है जिसमें धर्म का संस्कार नहीं है। जिसमें हिंसा का तीव्र भाव है, जिसमें क्रूरता है, जिसमें ईर्ष्या है, वह दूसरे को दुःखी बनाना चाहता है। जम्बूकुमार ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा-'मात! तात! मैं आपको दुःखी बनाना भी नहीं चाहता और अप्रसन्न रखना भी नहीं चाहता। किन्तु समस्या यह है मैं जो चाहता हूं वह आप नहीं चाहते। आप जो चाहते हैं वह मैं कर नहीं सकता। यह सिद्धांत का प्रश्न है इसलिए बड़ी समस्या है। अब कैसे समझौता हो?'
'पुत्र! तुम बुद्धिमान हो, विनीत हो। यदि तुम चाहोगे तो अवश्य ही कोई मार्ग निकल आएगा।'
विचारमग्न जम्बूकुमार ने कहा-'माता-पिता! मैं आपको कष्ट देना नहीं चाहता किंतु मेरी एक विवशता है। उस विवशता को भी आप समझो।'
'जात! तुम्हारी क्या विवशता है?'
'मेरी विवशता यह है मैं ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करके आया हूं और आप कहते हैं कि विवाह करना होगा। इन दोनों में मेल कैसे होगा? ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया है तो विवाह नहीं और विवाह है तो फिर ब्रह्मचर्य व्रत नहीं। इन दोनों में समझौता कैसे होगा? कौन-सा बिन्दु है, जहां समझौता हो सके?'
माता-पिता दोनों एक क्षण के लिए अवाक् रह गये, कुछ बोल नहीं पाए। उनके सामने भी प्रश्न आ गया। वे श्रावक थे, यह जानते थे कि जब व्रत स्वीकार कर लिया है तो हमारा आग्रह कैसे चलेगा? वे निरुत्तर से हो गए किन्तु माता-पिता के मन का कष्ट कम नहीं हो रहा था। जम्बूकुमार ने मां की घनीभूत व्यथा को पढ़ा-मां को कितना कष्ट हो रहा है, पिता को कितना संताप हो रहा है। व्यथा का भाव छिपा नहीं रहता। चेहरा स्वयं बोलता है। आदमी को बोलने की जरूरत नहीं होती। ___ एक बार पूज्य गुरुदेव तुलसी ने जोधपुर में प्रवचन करते हुए कहा था-वक्ता को कोरा बोलना नहीं चाहिए और श्रोता को कोरा सुनना नहीं चाहिए। श्रोता को वक्ता और वक्ता को श्रोता भी बनना चाहिए। लोगों ने इस बात को विस्मय के साथ सुना श्रोता बोलने लग जाये तो फिर वक्ता कैसे बोलेगा? आचार्यवर ने कहा-श्रोता वाणी से नहीं बोलता किंतु श्रोता का चेहरा बोलता है, आंखें बोलती हैं, हाव-भाव बोलता है, इशारा बोलता है। वक्ता उसे समझ लेता है। श्रोता सुनना पसन्द करते हैं या नहीं, यह पता चल जाता है। यदि श्रोता श्रवणोत्सुक नहीं है तो फिर वक्ता को मौन हो जाना चाहिए।
जम्बूकुमार ने माता-पिता की म्लान मुखाकृति को देखा, उनकी पीड़ा और भावना को पहचाना। अपने भीतर गहन चिंतन किया और एक समझौता कर लिया। ___ जम्बूकुमार ने सोचा-मैंने शीलव्रत को स्वीकार किया है किन्तु विवाह करने का त्याग नहीं किया है। मैं आठों कन्याओं से शादी करूं, उन्हें भी संयम के लिए समझाऊं और फिर साधुपन को स्वीकार करूं। इससे माता-पिता भी प्रसन्न हो जाएंगे और मेरा संकल्प भी बाधित नहीं होगा।
म्हे आदरियो व्रत शील रे, ते तो भांजू नहीं।
पिण परणवा रो अगार छे ए।
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