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गाथा परम विजय की
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उर्वरा भूमि, वर्षा ऋतु, अच्छी वृष्टि और फिर बीज वपन। इस स्थिति में कृषि की संभावना रहती है। सबसे पहले उर्वरा भूमि की जरूरत है। ऊसर भूमि में बीज बोया नहीं जाता। यदि कोई बो देता है तो उगता नहीं है।
जम्बूकुमार की हृत्-भूमि उर्वरा बन गई। उसे जो होना है उसके लिए भूमि तैयार हो गई। जब भूमिका बन जाती है तब आगे का काम सरल हो जाता है।
मन में जब कभी एक प्रश्न पैदा हो जाता है और उसकी खोज शुरू होती है तो अपने आप चरण आगे बढ़ते हैं और एक नई दिशा का उद्घाटन हो जाता है।
इस प्रश्न ने जम्बूकुमार के मन को आंदोलित कर दिया- मैंने क्या किया था ?
जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ ।
खोज हो, मन में तड़प हो तो गुरु मिलता है। जिस कंठ में तड़प ही न हो, प्यास ही न लगे उस कंठ को पानी पिलाने का कोई अर्थ नहीं होता। पानी अच्छा वहां लगता है जहां कंठ में प्यास है। जहां प्यास है वहां कहीं ना कहीं से पानी मिल ही जाता है।
जम्बूकुमार एक दिन वन भ्रमण के लिए गया । राजगृह नगर के बाह्यवर्ती उद्यान में वह चंक्रमण कर रहा था। सहसा उसकी दृष्टि एक ध्यानलीन मुनि की ओर गई- अरे ! अशोक वृक्ष के नीचे कोई महामुनि ध्यान में लीन हैं। कितना दिव्य है इनका आभामंडल और प्रभामंडल। जम्बूकुमार के चरण थम गए। उसने मुनि को वंदना की, उनकी सन्निधि में आसीन हो गया।
अर्ध घटिका बीती। महामुनि का ध्यान संपन्न हुआ। जम्बूकुमार ने पुनः वंदना की।
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