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गाथा परम विजय की
राग और वैराग्य। समाज राग के बिना नहीं चलता और शांति वैराग्य के बिना नहीं मिलती। जीवन चलाने के लिए राग और जीवन को शांतिमय बनाने के लिए वैराग्य। कभी-कभी निमित्त पाकर वैराग्य का उदय होता है। जिनके क्षयोपशम प्रबल होता है, उनमें अंतःप्रेरणा से भी वैराग्य जाग जाता है। जम्बूकुमार का क्षयोपशम प्रबल था, पवित्र आत्मा थी और बहुत कम कर्म शेष थे इसलिए यह भावना प्रबल बनी-कैसे मैं अपने आपको जान सकूँ, अपने आपको देख सकू।
भावना की प्रबलता के साथ ही यह संवाद मिला-आचार्य सुधर्मा आए हैं। अंतःप्रेरणा हुई–मुझे भी जाना है। वह तैयार हुआ। मां के पास आया, आकर बोला-'मां! आज सुधर्मा स्वामी नगर में पधारे हैं। मुझे दर्शन करना है।' ____ मां ने कहा-'बहुत अच्छी बात है। बहुत अच्छा सोचा तुमने। वे हमारे गुरु हैं। गुरु-दर्शन के लिए तुम्हें जाना ही चाहिए।'
जम्बूकुमार वहां पहुंचा। हजारों-हजारों लोग इकट्ठे हो गए।
राजगृह भगवान महावीर का प्रमुख विहार क्षेत्र था। महारानी चेलना दृढ़धर्मिणी श्राविका थी। उसने श्रेणिक को भी अपने विचारों में ढाल लिया। महामंत्री अभयकुमार जैन श्रावक था। हजारों-हजारों लोग भगवान के प्रति गहरी आस्था और श्रद्धा रखते थे।
भगवान महावीर का निर्वाण हो गया। सुधर्मा पट्टधर बन गये। भगवान महावीर के पट्टधर शिष्य आर्य सुधर्मा का आगमन जनता में बहुत उत्साह और श्रद्धा का संचार करने वाला बना। हजारों लोग सुधर्मा के दर्शनार्थ आए। परिषद् जुड़ी। जम्बूकुमार सामने बैठा है। सुधर्मा का ध्यान भी उसकी ओर केन्द्रित हो गया। उन्हें भी योग्य शिष्य की जरूरत थी। हर आचार्य को योग्य शिष्य की जरूरत रहती है। ऐसे तो बहुत शिष्य होते हैं पर एक ऐसे योग्य शिष्य की विशेष अपेक्षा रहती है जो आचार्य के दायित्व को संभाल
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