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यह पर-सुख की दुर्बलता की जो व्यथा है, उसकी ऐसी अद्भुत कथा है कि कोई उपाय दुनिया में नहीं है।
परसुख दुर्बलता व्यथा, अद्भुत कथा कहाय। जम्बूकुमार ने कहा-'महाराज! आपका व्यवहार प्रमोद-भावनापूर्ण होना चाहिए। एक-दूसरे की विशेषता को देखकर जलना नहीं है किन्तु प्रसन्न रहना है और गुण को ग्रहण करना है। गुण चाहे कहीं भी हो, किसी व्यक्ति में हो उसका अनुमोदन और वर्धापन करें।
तीसरा सूत्र है जो प्राणी कष्ट पा रहे हैं, उनके प्रति करुणा का भाव, कृपा का भाव होना चाहिए। दयापूर्ण व्यवहार हो, क्रूरतापूर्ण नहीं। ___ चौथा सूत्र है मध्यस्थ भाव। कुछ ऐसे लोग हैं जो कुछ कहने पर भी मानते नहीं हैं, समझते ही नहीं हैं। कब तक क्रोध करोगे? वहां तटस्थ बन जाओ। आपका ऐसा व्यवहार रहे तो मैं समझता हूं आपके लिए बहुत कल्याणकारी बनेगा, आप बहुत प्रसन्न रहेंगे।' ___ रत्नचूल और मृगांक दोनों ने कहा-'कुमार! आपने बहुत हित की बात कही है। हम परस्पर मैत्रीभाव बनाये रखेंगे। कभी ईर्ष्या, द्वेष का व्यवहार नहीं होगा।'
प्रस्थान का समय। सम्राट् श्रेणिक, जम्बूकुमार आदि विमान तक विदा देने के लिए आए। परस्पर गले
मिले। शुभ भविष्य की मंगलकामनाएं की। पुनः मिलन की आशंसा व्यक्त की।....स्नेह और सौहार्दमय गाथा माहौल में तीनों विद्याधर अपने विमान में आरूढ़ हुए, आकाश में उड़ चले। परम विजय की
व्योमगति, मृगांक, रत्नचूल-सब अपने-अपने नगर की ओर चले गए। जम्बूकुमार का संग उनसे छूट गया। श्रेणिक के साथ वह कुरलाचल पर ठहर गया। सम्राट् श्रेणिक जिस लड़ाई में भाग लेने के लिए जा रहा था वह सम्पन्न हो गई तो आगे बढ़ने की बात भी समाप्त हो गई। श्रेणिक ने आदेश दिया-चलो, राजगृह के लिए पुनः प्रस्थान करो।
सम्राट् श्रेणिक, विशाल सेना और जम्बूकुमार सब साथ में चले। विमान तो था नहीं कि बस उड़े और पहुंच जाएं। रथ, हाथी, घोड़े अपनी गति से चलते थे पर ऐसा लगता है-उस समय मनुष्य के पैरों की गति में भी तीव्रता थी। अब वाहन का प्रयोग हो गया इसलिए किसी को पैरों को ताकतवर बनाने की जरूरत नहीं लगती। अतीत में गति को तीव्र बनाने के प्रयोग चलते थे। तंत्रशास्त्र में गति की तीव्रता के प्रयोग हैं। अमुक-अमुक प्रयोग करने से मनुष्य बहुत तेज चल सकता है। अमुक जड़ी, अमुक औषधि, अमुक विद्या का प्रयोग करो, गति में वेग आ जायेगा। ___ उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत बड़ा शक्तिशाली था। उसका एक दूत था लौहजंघ। उसकी जंघा लोहे जैसी मजबूत थी। वह रात में सौ योजन चला जाता था। यह कोई गप्प नहीं है, एक तथ्य है। सौ योजन४०० कोस यानी ८०० मील के आस-पास। १०००-१२०० कि.मी. एक रात में चला जाता। शायद रेल भी नहीं चलती है इतनी तेज। उज्जयिनी से चलता, राजगृह पहुंचता और वापस रात को उज्जयिनी पहुंच जाता। इतनी तेज गति थी। तेज गति के साधन भी थे, प्रयोग भी थे। आजकल के धावक दौड़ते हैं। उनसे