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रत्नचूल-'नहीं।'
'विद्याधरवर! मृगांक इस कन्या को राजा श्रेणिक को देने का निश्चय कर चुका है। अब तुम उस पर अधिकार करना चाहते हो, उसे मांग रहे हो, क्या यह तुम्हारा न्यायोचित कार्य है? मृगांक बेचारा क्या करेगा? वह कन्या को एक बार जिसे देने का वचन दे चुका है, तुम्हें फिर कैसे देगा? तुम ठंडे दिमाग से
सोचो।'
___ जम्बूकुमार ने एक शीतल माला पिरोई, उन वचन पुष्यों की पिरोई जो शांतिदायक हैं। विद्याधर को ऐसी गर्म लगी कि जैसे आग ही परोस रहा है। वह उबल गया, भीतर ही भीतर आकुल हो गया।
इति सूक्तिवचःपुष्पैगुंफितां चातिशीतलां।
मालामुष्णतरां मेने, विरहीव खगस्तदा।। रत्नचूल बोला-'ओ बालक! अभी तुम नवयुवक हो। तुमने अपना परिचय दिया मैं मृगांक का दूत हूं। दूत बन कर आए हो। तुम दूत का शिष्टाचार भी नहीं जानते। दूत की भांति शिष्ट बोलना भी नहीं जानते।'
दूत! मन्योऽसि रे बाल, यस्त्वं अभ्यागतो गृहे।
अवध्योऽसि ततो नान्या, गतिस्त्वादृक् शठस्य वै।। हिन्दुस्तान के शासक ने चीन के सम्राट के पास अपना दूत भेजा था। दूत वहां गया। चीन और भारत
का पुराना संबंध था। चीन, भूटान और भारत–इनकी संस्कृतियां हजारों-हजारों वर्ष पुरानी हैं। भारत के दूत गाथा ने वहां प्रणाम किया। चीन के सम्राट ने पूछ लिया-'मेरी क्या स्थिति है? तुम्हारा सम्राट और मैं दोनों में परम विजय की
तुम क्या तुलना करते हो? क्या हम दोनों समान हैं?'
दूत बोला-बिल्कुल नहीं। मेरा सम्राट् दूज के चांद के समान है, आप पूनम के चांद के समान।' चीन का सम्राट् खुश हो गया।
कुमार! उस दूत ने चीन के सम्राट को खुश कर दिया। उसने कितनी शिष्ट भाषा में अपनी बात कही। तुम छोटे बच्चे हो। पता नहीं, किसने तुम्हें दूत बना दिया! दूत का कितना गंभीर दायित्व होता है। दूत चाहे तो लड़ा देता है और चाहे तो परस्पर में समझौता करा देता है। तुम्हारा चयन ठीक नहीं हुआ। किसी ने बनाया है या तुम अपने आप बनकर आ गए? लगता है किसी ने बनाया तो नहीं है। अपने आप बन कर
आ गए हो। पर मैं क्या करूं? मेरे सामने समस्या है। ____ तुम कहते हो मैं दूत हूं और दूत अवध्य होता है। इसलिए मैं तुमको मार तो नहीं सकता। किन्तु तुमने जो अशिष्ट आचरण किया है, उससे ऐसा लगता है-स्वामीकार्यविनाशकृत्-तुम अपने स्वामी के कार्य को बिगाड़ रहे हो। मुझे इतना आवेश आ गया है कि अब तो मैं तुम्हारे स्वामी को मारकर ही दम लूंगा। यदि तुम शांतिपूर्ण बात कहते तो मैं फिर भी कुछ सोचता। तुमने तो मुझे सीख देनी शुरू कर दी। मैं कैसे तुम्हारी बात मानूं? तुम वाचाल हो, ज्यादा बोलते हो। जब समय आएगा तब पता लगेगा।'
जीरकः किमु हेमाद्रिं, भेत्तुमुत्सहते शठः। मृगांकः श्रेणिको नालं, मामाराधयितुं युधि।।