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[दशवैकालिक सूत्र दुक्कराई करित्ता णं, दुस्सहाई सहित्तु य ।
के इत्थ देवलोएसु, केइ सिज्झंति नीरया ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद
दुष्कर करणी अपना कर, दुस्सह पीड़ाओं को सहकर ।
जाते हैं कितने सुरपुर को, हो सिद्ध कोई नीरज बनकर ।। अन्वयार्थ-दुक्कराई = दुष्कर क्रियाओं को । करित्ताणं = करके । य = और । दुस्सहाई = दुस्सह परीषहों को । सहित्तु = सहन करके । के इत्थ = कितने ही । देवलोएसु = देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। केइ = कितने ही। नीरया = कर्म रज से रहित होकर । सिज्झंति = सिद्ध हो जाते हैं।
भावार्थ-निर्ग्रन्थचर्या को अपना करके, दुष्कर तप नियमों का आचरण करके और दुस्सह परीषहों को सहन करके कई साधक तो सर्वथा कर्म रज को दूर कर सिद्ध हो जाते हैं और कई देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।
साधना का लक्ष्य जन्म-मरण के बन्धनों से सर्वथा मुक्त होना है। फिर भी जिनके भोग-कर्म शेष रहते हैं, उनको स्वर्गादि के भव भी धारण करने पड़ते हैं।
खवित्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य । सिद्धि-मग्ग-मणुप्पत्ता, ताइणो परिनिव्वुडे ।।15।।
-त्ति बेमि। हिन्दी पद्यानुवाद
संयम और तपस्या से जो, पूर्वार्जित कर्मों का क्षय कर।
करते हैं प्राप्त सिद्धि पथ को, बायी मुनि मुक्त अमर बनकर ।। अन्वयार्थ-सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता = मोक्ष-मार्ग के साधक । संजमेण = संयम से । य = और । तवेण = तपस्या से । पव्वकम्माई = पर्व संचित कर्मों को। खवित्ता = क्षय करके । ताइणो = षटकाय जीव के रक्षक मुनि । परिनिव्वुडे = परिनिर्वाण (पूर्ण शान्ति) प्राप्त करते हैं । त्ति बेमि = ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ-अवशेष कर्मों को खपाने के लिए वे स्वर्ग से मनुष्य-भव धारण करते हैं, जहाँ संयम और तपस्या से संचित कर्मों का क्षय करके सिद्धि-मार्ग पर चलते हुए, जीव मात्र के रक्षक मुनि अन्त में निराबाध सुख की प्राप्ति करते हैं। त्ति बेमि = (इति ब्रवीमि) ऐसा मैं कहता हूँ।
।।तृतीय अध्ययन समाप्त ।।
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