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नौवाँ अध्ययन
[245 हिन्दी पद्यानुवाद
मंत्र सुसंस्कृत नानाहुति से, अनल विप्र ज्यों नमन करे ।
शिष्य अनंत ज्ञानयुत् ज्योंही, गुरु सेवा में चित्त धरे ।। अन्वयार्थ-जहा = जैसे। आहिअग्गी = अग्नि पूजक ब्राह्मण । नाणाहुइमंतपयाभिसित्तं = नानाविध घृतादि की आहुति और मन्त्रपदों से अभिषिक्त । जलणं = अग्निदेव को । नमसे = नमस्कार करता है। एव = इसी प्रकार शिष्य । अणंतणाणोवगओ = अनन्त ज्ञान युक्त । वि संतो = होकर भी। आयरियं (आयरिअं) = आचार्य की । उवचिट्ठइज्जा = सेवा में उपस्थित होकर विनयपूर्वक उनकी सेवा करे ।
भावार्थ-शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को देवतुल्य समझे, जैसे आहिताग्नि देवकपूजक विप्र अनेक प्रकार की घी, मधु आदि की आहुति और वेद मन्त्रों से अभिषिक्त अग्नि को देव भाव से नमस्कार करता है, वैसे ही योग्य शिष्य अनन्तज्ञान से युक्त हो जाने पर भी आचार्य महाराज की सेवा में तत्परता से उपस्थित रहे। विनयपूर्वक गुरु की सेवा करे।
जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा य णिच्चं ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद
जिसके पास धर्म पद सीखे, उससे सविनय व्यवहार करे।
तन मन वचनों से वन्दन कर, कर युत सिर से सत्कार करे ।। अन्वयार्थ-जस्संतिए = जिस गुरु के पास । धम्मपयाई = धर्म पदों को । सिक्खे तस्संतिए = सीखे, उसके समीप में । वेणइयं = विनय का । पउंजे = प्रयोग करे । सक्कारए = सत्कार दे। सिरसा पंजलीओ = सिर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़े-बहुमान दे। य = और । कायग्गिरा भो मणसा = काया, वचन, और मन से। णिच्चं = सदा गुरु की भक्ति करे।
भावार्थ-शिष्य का यह परम कर्त्तव्य है कि जिस मनि के पास धर्म पदों को सीखे, उनके पास उचित विनय की प्रवृत्ति कर दोनों हाथ जोड़े हुए सिर झुकाकर उन्हें नमन करे और तन, मन एवं वाणी से उनका सदा सत्कार करे, गुरुदेवों का गुण कीर्तन करते हुए उनका बहुमान करे । विनय से गुण दीपते हैं और दर्शकों के मन में गुरु के प्रति भक्ति जागृत होती है एवं धर्म की प्रभावना होती है।
लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाण भागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरु सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरु सययं पूययामि ।।13।।