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प्रथम चूलिका
[305 यदि इस शरीर के होते भी, ना भोग भाव मन मिट पाये।
मिट जायेगी तब निश्चय, जब मृत्यु निकट आ जाये ।। अन्वयार्थ-दुःख से घबराकर संयम छोड़ने वाले साधु को ऐसा विचार करना चाहिये कि-मे = मेरा । इणं = यह । दुक्खं = दु:ख । चिरं = बहुत काल तक । न भविस्सई = नहीं रहेगा। जंतुणो = जीव की। भोग पिवास = भोग-लिप्सा विषय-वासना। असासया = अशाश्वत यानी क्षणिक है, अल्प कालिक है। चे = यदि यह भोगलिप्सा । इमेण = इस । सरीरेण = शरीर में शक्ति रहते । न अविस्सई = नष्ट न होगी तो । मे = मेरी वृद्धावस्था आने पर अथवा । जीवियपज्जवेण = मृत्यु आने पर तो। अविस्सई = अवश्य नष्ट हो ही जायगी। जब यह शरीर ही अनित्य है तो भोग-लिप्सा विषया-वासना नित्य कैसे हो सकती है?
भावार्थ-यह मेरा संयम का दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हुए नहीं मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो वह अवश्य ही मिट जावेगी।
जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ, चएज्ज देहं न हु धम्मसासणं।
तं तारिसं नो पइलंति' इंदिया, उविंतवाया व सुदंसणं गिरिं ।।17।। हिन्दी पद्यानुवाद
यह देह भले ही जाये पर. ना धर्म कभी जाने पाये। जिसके मानस में सुदृढ तथा, अविचल निश्चल निश्चय यह हो जाये ।। इन्द्रियाँ कभी भी क्या इससे, मुनि को विचलित है कर सकती।
अचल सुदर्शन गिरि को ज्यों, ना हवा प्रकम्पित कर सकती।। अन्वयार्थ-एवं = इस प्रकार उपर्युक्त कथनानुसार विचार करने से । जस्स = जिसकी। अप्पा = आत्मा (धर्म पर)। उ = इतनी। निच्छिओ = दृढ़। हवेज्ज (हविज्ज) = हो जाती है कि अवसर आने पर वह धर्म पर । देहं = अपने शरीर को । चएज्ज (चइज्ज) = प्रसन्नतापूर्वक त्याग देता है। न्यौछावर कर देता है। उ (हु) = किन्तु । न धम्मसासणं = धर्म का त्याग नहीं करता। व = जिस प्रकार । उविंतवाया (उवेंतवाया, उविंतिवाया) = प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु भी। सुदंसणं गिरिं = सुमेरु पर्वत को चलायमान नहीं कर सकती। उसी प्रकार । इंदिया = चंचल इन्द्रियाँ भी। तारिसं = सुमेरु पर्वत के समान दृढ़ । तं = उस पूर्वोक्त मुनि को । नो पइलंति (नो पयलेंति, नो पइलिंति) = संयम पथ से नहीं डिगा सकती।
1. पयलिंति, पयलेंति - पाठान्तर ।