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अन्वचा
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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-जिइंदियस्स = जिसने चंचल इन्द्रियों को जीत लिया है उस जितेन्द्रिय ने। धिईमओ = जिसके हृदय में संयम के प्रति पूर्ण धैर्य है उस धृतिमति ने । जस्स = जिस । सप्पुरिसस्स = सत्पुरुष ने । जोग = मन, वचन और कायारूपी तीनों योगों को । एरिसा = अच्छी तरह वश में कर लिया है। तं = ऐसे महापुरुष को । लोए = लोक में । पडिबुद्ध जीवी = प्रतिबुद्ध जीवी/संयम में सदा जागृत रहने वाला । आहु = कहते हैं, क्योंकि । सो = वह । णिच्चं (निच्चं) = नित्य-सदा । संजमजीविएणं = संयमी जीवन से ही। जीवई (जीयई) = जीता है।
भावार्थ-जिस जितेन्द्रिय और धृतिमान सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार के होते हैं, उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है। जो ऐसा होता है, वह संयमी जीवन जीता है।
अप्पाहु खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं । अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ।।16।।
॥त्ति बेमि॥ हिन्दी पद्यानुवाद
सुसमाहित कर सब इन्द्रिय को, आत्मा की रक्षा सतत करे। कारण असुरक्षित आत्मा ही, जग जन्म-मरण का वरण करे ।। कर जाती पर सुरक्षित यह, दुष्कर्म जन्म दुःख पीड़ा को ।
तब पूर्ण मुक्त बन जाती है, पाकर निजगुण की संपद को ।। अन्वयार्थ-सव्विंदिएहिं = सब इन्द्रियों को वश में रखने वाले । सुसमाहिएहि = सुसमाधिवन्त मुनियों को । सययं = सतत/सदा । अप्पा = अपनी आत्मा की । खलु = सब प्रकार से । रक्खियव्वो = रक्षा करनी चाहिये-अर्थात् उसे तप-संयम में लगाकर पाप कार्यों से बचाना चाहिये, क्योंकि। अरक्खिओ (अरक्खियो) = जो आत्मा असुरक्षित है वह, जाइपहं = जाति पथ को । उवेइ = प्राप्त होती है अर्थात् जन्म-मरण के चक्र में फँसकर संसार में परिभ्रमण करती रहती है और । सुरक्खिओ = जो सुरक्षित है अर्थात् पाप कार्यों से निवृत्त है वह आत्मा । सव्व दुहाण = सब दुःखों से । मुच्चइ = मुक्त हो जाती है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। त्ति बेमि = ऐसा मैं कहता हूँ।
___ भावार्थ-सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिये। अरक्षित आत्मा जाति-पथ (जन्म-मरण) के मार्ग को प्राप्त होता है और पाप से सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाती है। ऐसा मैं कहता हूँ।
।। द्वितीय चूलिका समाप्त ।।
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