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[दशवैकालिक सूत्र चातुर्मास और शेष काल में एक मास रह चुका हो, वहाँ दोगुणा काल, (दो चातुर्मास और दो मास) का अन्तर किये बिना नहीं रहे । भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से चले । सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे उसके अनुसार चले।
जो पुव्वरत्तावरत्तकाले, संपेहए अप्पगमप्पएणं ।
किं मे कडं किं च मे किच्चसेसं, किं सक्कणिज्जंण समायरामि ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो साधु रात्रि के प्रथम और, अन्तिम प्रहर काल भीतर । करता है अपना आलोचन, स्वयमेव चित्त को निर्मल कर ।। क्या किया अभी तक है मैंने, करना मुझको क्या शेष जिसे।
वह कौन कार्य जो कर सकता, आलस के वश ना किया उसे ।। अन्वयार्थ-जो = साधु को। पुव्वरत्तावरत्तकाले = रात्रि के प्रथम प्रहर और पिछले प्रहर में। अप्पगं = अपनी आत्मा को। अप्पएणं (अप्पगेणं) = अपनी आत्मा द्वारा । संपेहए (संपिक्खए) = सम्यक् प्रकार से देखना चाहिये अर्थात् आत्म-चिन्तन करते हुए इस प्रकार विचार करना चाहिये कि । मे = मैंने । किं = क्या-क्या। किच्च = करने योग्य कार्य । कई = किये हैं। च = और । किं = कौन-कौन से तपश्चरणादि कार्य करना । मे = मेरे लिये । सेसं = अभी शेष हैं और। किं = वे कौन-कौन से कार्य हैं। सक्कणिज्जं = जिनको करने की मेरे में शक्ति तो है किन्तु । ण समायरामि = प्रमाद आदि के कारण मैं उनका आचरण नहीं कर रहा हूँ।
भावार्थ-साधु रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपना आत्मालोचन करते हुए सम्यक् प्रकार से देखे, सोचे कि मैंने क्या किया है, मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है, वह कौन सा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ। पर प्रमादवश नहीं कर पाता हूँ।
किं मे परो पासइ किं च अप्पा, किंवाऽहं खलियंण विवज्जयामि ।
इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं णो पडिबंध कुज्जा ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
अन्य देखे क्या भूल मेरी, या स्वयं उसे मैं देख रहा । स्खलना ऐसी कौन जिसे, मैं देख-देख ना छोड़ रहा ।। कर आत्म-निरीक्षण यह सम्यक्, प्रतिबन्ध अनागत का न करे।
बंधे असंयम में न श्रमण, ना भूले कभी निदान धरे ।। अन्वयार्थ-साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि-मे = जब मैं संयम सम्बन्धी भूल कर बैठता हूँ तो । परो = दूसरे लोग-स्वपक्ष तथा पर पक्ष वाले सभी मुझे। किं = किस घृणा की दृष्टि से । पासइ = देखते हैं। च = और। अप्पा = मेरी स्वयं की आत्मा । किं = क्या कहती है। वा = और । अहं