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[दशवैकालिक सूत्र
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अन्वयार्थ-मासकल्प एवं चातुर्मासावासादि की समाप्ति पर जब साधु विहार करने लगे तब - सयणासणाई = शयन आसन । सिज्जं = शय्या । णिसिज्जं = निषद्या । तह = तथा । भत्तपाणं = आहार-पानी आदि किसी भी वस्तु के लिये श्रावकों से / गृहस्थों से । ण पडिण्णविज्जा ( न पडिन्नविज्जा) = ऐसी प्रतिज्ञा न कराए कि जब मैं वापिस लौटकर यहाँ आऊँ तब ये पदार्थ मुझे ही देना और किसी को मत देना । गामे = गाँव में । वा = अथवा । कुले = कुल में। णगरे (नगरे) = नगर में । व = अथवा । देसे : देश में । कहिं पि = कहीं पर भी साधु को । ममत्त भावं = ममत्व भाव । ण कुज्जा ( न कुज्जा ) = नहीं रखना चाहिये । यहाँ तक कि वस्त्र - पात्रादि धर्मोपकरणों पर एवं अपने शरीर पर भी ममत्व भाव नहीं रखना चाहिये।
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भावार्थ-साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा नहीं दिलाए कि यह शयन, आसन, उपाश्रय और स्वाध्याय भूमि जब मैं लौटकर आऊँ तब मुझे ही देना । इसी प्रकार भक्त - पान मुझे ही देना ऐसी प्रतिज्ञा भी न करावे । साधु गाँव कुल नगर या देश में किसी भी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं रखे ।
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गिहिणो वेयावडियं ण कुज्जा, अभिवायणं वंदण - पूयणं वा । असंकिलिट्ठेहिं समं वसिज्जा, मुणी चरित्तस्स जओ ण हाणी ।।9।।
हिन्दी पद्यानुवाद
वैयावृत्त्य गृहस्थों का, भूले भी करते नहीं मुनिजन । ऐसे ही करें न अभिवादन, एवं उनका वन्दन पूजन ।। संक्लेश रहित जो साधु वृन्द, मुनि उन सबके ही साथ रहे। जिससे चरित्र की हानि न हो, सिर आये लाखों दुःख सहे ।।
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अन्वयार्थ-मुणी = मुनि/ साधु । गिहिणो = गृहस्थ की । वेयावडियं : : वैयावृत्त्य / सेवा-सुश्रुषा । वा = अथवा। अभिवायणं वंदण - पूयणं ण कुज्जा = अभिवादन / स्तुति / वन्दन/प्रणाम और पूजन वस्त्रादि द्वारा सत्कार आदि कार्य न करे तथा । अंसकिलिट्ठेहिं = संक्लेष रहित उत्कृष्ट चारित्र का पालन करने वाले साधुओं के । समं = साथ । वसिज्जा = रहे । जओ = जिनके साथ रहने से । चरित्तस्स = संयम/चारित्र की । ण हाणी (न हाणी ) = विराधना न हो ।
भावार्थ-साधु गृहस्थ की वैयावृत्त्य - सेवा नहीं करे। उसका अभिवादन, वन्दन और पूजन भी नहीं करे । मुनिजन संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहे, जिससे कि उनके चारित्र की कोई विराधना अथवा हानि न हो ।
न वा लभेज्जा णिउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । इक्को वि पावाइं विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ।।10।।