Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 323
________________ द्वितीय चूलिका ] [311 भावार्थ-आकीर्ण अर्थात् जन-संकुल, भीड़-भाड़ वाले स्थान और अवमान यानी खाने वाले अधिक हों और खाद्य-सामग्री कम हो, ऐसी भोजन सामग्री में से भिक्षा लेने का वर्जन करना एवं गृहस्थ के दृष्ट स्थान से लाये हुए भक्त पान का ही सेवन करना ऋषियों के लिये प्रशस्त कहा है। भिक्षु आहार आदि से संस्पृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा ले । दाता जो वस्तु दे रहा है उसी के द्वारा संस्पृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का यत्न करे, ताकि पूर्व कर्म और पश्चात् कर्म की सम्भावना नहीं रहे । अमज्जमंसासि अमच्छरीया, अभिक्खणं निव्विगइं गओ य । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हविज्जा ।। 7 ।। हिन्दी पद्यानुवाद ना मद्य माँस का अशन करे, और मत्सरता नहीं चित्त धरे । ना बार-बार विकृति खाये, और बहुधा कायोत्सर्ग करे ।। स्वाध्याय हेतु जो तप सुविहित, मुनि उसके लिये प्रयत्न करे । निज आत्मा के कल्याण हेतु, शास्त्रों का चिन्तन मनन करे ।। अन्वयार्थ-अमज्जमंसासि = साधु को मद्य-माँसादि अभक्ष्य पदार्थों का कदापि सेवन नहीं करना चाहिये | अमच्छरीया = किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये । अभिक्खणं = सदा / प्रतिक्षण | निव्विगई गओ (निव्विगइं गया) = विषयों का त्याग करना चाहिये । अभिक्खणं = पुन: पुन: । काउस्सग्गकारी = कायोत्सर्ग करना चाहिये । य = और। सज्झायजोगे = वाचना, पृच्छनादि स्वाध्याय में । पयओ हविज्जा = सदा लगे रहना चाहिये । I भावार्थ-साधु मद्य और मांस का उपभोग नहीं करता। इनको महारम्भी, अभक्ष्य और तमोगुणी समझकर साधु ग्रहण नहीं करता। वह किसी से मत्सर भाव नहीं रखता। बार-बार विकृतियों का सेवन नहीं करता । बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला और स्वाध्याय के लिये विहित तपस्या में प्रयत्नशील रहता है । ण पडिण्णविज्जा सयणासणाई, सिज्जं णिसिज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा गरे व देसे, ममत्तभावं ण कहिं पि कुज्जा ।।8।। हिन्दी पद्यानुवाद ना विहार के समय साधु, यह नियम गृही से करवाये । शयनासन मेरे आने पर, निश्चय मुझको ही लौटाये ।। ऐसे भक्तपान आदिक, मेरे ही आने पर लाये । कुल नगर गाँव या देश कहीं, ना मोह भाव को फैलाये ।।

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