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[दशवैकालिक सूत्र ना कलह किसी से करे कभी, चाहे जैसा अवसर आये।
ऋषियों के लिये प्रशस्त यही, जीवन चर्या है बतलाये ।। अन्वयार्थ-अणिएयवासो (अनिएसवासो) = अनियत वास यानी किसी विशेष कारण के बिना एक ही स्थान पर अधिक न ठहरना । समुयाणचरिया = समुदान चर्या अर्थात् गरीब और अमीर सभी के घरों से सामुदानिकी भिक्षा ग्रहण करना एवं अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेना । अण्णाय उंछ (अन्नाय उंछं) = अज्ञात घरों से भिक्षा ग्रहण करना । पइरिक्कया = पशु, स्त्री, पंडग (नपुंसक) आदि से रहित एकान्त स्थान में रहना । य = और । अप्पोवही = उपधि अर्थात् भण्डोपकरण आदि थोड़े रखना । य =
और । कलहविवज्जणा = किसी के साथ कलह न करना । विहारचरिया = यह विहार चर्या भगवन्तों ने । इसिणं = मुनियों के लिये । पसत्था = प्रशस्त यानी कल्याणकारी बतलाई है।
भावार्थ-अनिकेतवास (अनियतवास)-जैन श्रमण किसी एक स्थान में नियतवास नहीं करते। उनकी भिक्षा भी सामूहिक होती है। किसी एक घर में या निमन्त्रित गृहस्थ के यहाँ से भोजन नहीं लेते । अज्ञात कुलों से भी विधिपूर्वक भिक्षा लेना, एकान्तवास तथा उपकरणों की अल्पता और कलह का वर्जन यह विहार-चर्या (जीवन-चर्या) ऋषियों के लिये प्रशस्त कही गई है।
आइण्ण-ओमाण-विवज्जणा य, ओसण्ण-दिट्ठाहड-भत्तपाणे ।
संसट्ठकप्पेण चरिज्ज भिक्खू, तज्जायसंसट्ठ जई जइज्जा ।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद
अवमान और आकीर्ण नाम के, करे भोज का मुनि वर्जन । है ऋषि जन के हित में प्रशस्त, देखे-सदनों का अशन ग्रहण ।। संस्पृष्ट हाथ या पात्रों से, जो भिक्षा मुनि को दाता दे।
देखे न सरस या अरस वस्तु, वह कल्प मान मन हर्षित ले।। अन्वयार्थ-भिक्खू = भिक्षार्थ (गोचरी) जाने वाले। जई = यति यानी साधु को चाहिये कि। आइण्ण (आइन्न) ओमाण विवज्जणा = जहाँ जीमनवार (सामूहिक भोजन) हो रहा हो और आने-जाने का मार्ग लोगों से खचाखच भरा हो ऐसे भीड़-भाड़ वाले स्थान में अथवा जहाँ स्वपक्ष और पर-पक्ष की ओर से अपमान होता हो, ऐसे स्थान में गोचरी के लिये न जाए । ओसण्ण (ओसन्न) दिट्ठा हडभत्तपाणे = साधु को उपयोगपूर्वक शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । य = और । तज्जाय संसट्ट = दाता जो आहारादि भिक्षा में दे रहा हो उसी से दाता के हाथ तथा चमचा आदि संसृष्ट (खरडे हुए/ भरे हुए) हों तो । संसट्ठकप्पेण = उन्हीं खरडे हुए/भरे हुए हाथ अथवा चमचा आदि से आहार ग्रहण कर । चरिज्ज = संयम यात्रा का निर्वाह करते हुए विचरना चाहिये । जइज्जा = उपर्युक्त कल्याणकारी विहार चर्या भगवन्तों ने फरमाई है, इसलिये इसके पालन करने में मुनियों को पूर्ण यत्न करना चाहिये।