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द्वितीय चूलिका]
[313 हिन्दी पद्यानुवाद
यदि अपने से अधिक गुणी, कोई न कदाचित् मिल पाये। अथवा गुण वाला अपने सम, ना निपुण साथ कोई आये ।। तो पाप कर्म का कर वर्जन, वह काम भोग से दूर रहे।
एकाकी भी निर्मल मन से, विधि पूर्वक साधु विहार करे ।। अन्वयार्थ-वा (या) = यदि कदाचित् कालदोष से । णिउणं (निउणं) = संयम पालन करने में निपुण । गुणाहियं = अपने से अधिक गुणवान् । वा = अथवा । गुणओ समं वा = अपने समान गुणों वाला । सहायं = कोई साथी साधु । न लभेज्जा = न मिले तो । पावाई = पाप कार्यों को। विवज्जयंतो = वर्जता/छोड़ता हुआ। कामेसु = काम भोगों में । असज्जमाणो = आसक्त न होता हुआ पूर्ण सावधानी के साथ । इक्को वि = अकेला भी। विहरेज्ज = विचरण करे, किन्तु शिथिलाचारी एवं पासत्थों के साथ न विचरे।
भावार्थ-यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुण वाला निपुण साथी नहीं मिले तो पाप कर्मों का वर्जन करता हुआ काम भोगों में अनासक्त भाव से अकेला ही (संघ-स्थित) विहार करे। किन्तु दुर्गुणियों के सहवास में नहीं रहे।
संवच्छरं वा वि परं पमाणं, बीयं च वासं न तहिं वसेज्जा।
सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ।।11।। हिन्दी पद्यानुवाद
मुनि वर्षा ऋतु में चार मास, और शेष काल में मास रहे। दो अधिक मास दो वर्ष बिना, अन्तर के ना फिर वहाँ रहे ।। है भिक्ष जनों के लिये उचित. सत्रोक्त मार्ग से सदा चले।
सूत्रार्थ करे आज्ञा जैसी, वैसे पथ पर ही ध्यान धरे ।। अन्वयार्थ-संवच्छरं = वर्षा काल के चार मास । च = और । वा वि = बाकी समय में एक मास रहने का । परं = उत्कृष्ट । पमाणं = परिमाण है। इसलिये जहाँ पर चातुर्मास किया हो अथवा मासकल्प किया हो । तहिं = वहाँ पर । बीयं (बीअं) = दूसरा । वासं = चातुर्मास अथवा मासकल्प । न वसेज्जा (न वसिज्जा) = नहीं करना चाहिये क्योंकि । सुत्तस्स अत्थो = सूत्र एवं उसका अर्थ । जह = जिस प्रकार । आणवेइ = आज्ञा दे उसी प्रकार । सुत्तस्स = सूत्रोक्त । मग्गेण = मार्ग से । भिक्खू = मुनि को । चरेज्ज (चरिज्ज) = प्रवृत्ति करनी चाहिये।
भावार्थ-जिस गाँव में मुनि, साधु मर्यादानुसार उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चुका हो, अर्थात् वर्षाकाल में