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[दशवकालिक सूत्र अन्वयार्थ-केवलिभासियं = सर्वज्ञों द्वारा कही हुई । सुयं चूलियं तु = श्रुतज्ञान रूपी विविक्तचर्या चूलिका का। पवक्खामि = (मैं) वर्णन/कथन करता हूँ। जं = जिसे । सुणित्तु = सुनकर । सुपुण्णाणं (सुपुन्नाणं) = पुण्यशाली जीवों की । धम्मे = धर्म में । मई = मति/श्रद्धा । उप्पज्जए = उत्पन्न हो जाए।
भावार्थ-शास्त्रकार कहते हैं-“मैं उस चूलिका को कहूँगा जो मैंने सुनी है, और जो केवली भाषित है, जिसे सुनकर भाग्यशाली जीवों की धर्म में मति उत्पन्न होती है।"
अणुसोय-पट्ठिए बहुजणम्मि, पडिसोय-लद्ध-लक्खेणं।
पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद
है बहुजन यहाँ स्रोतगामी, सब भोग मार्ग पर जाते हैं। प्रतिस्रोत गमन का लक्ष्य उन्हें, जो मुक्तिभाव अपनाते हैं।। जो विषय-भोग से हो विरक्त, और चाह रहा संयम-सेवन ।
वैसे जन अपनी आत्मा का, प्रतिस्रोत भाव में करे रमन ।। अन्वयार्थ-जिस प्रकार नदी में गिरा हुआ काष्ठ नदी-प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर ही बहता जाता है उसी प्रकार-बहुजणम्मि = बहुत से मनुष्य । अणुसोय पट्ठिए = काम-भोग, रूपी विषयों के प्रवाह के वेग से संसार रूपी समुद्र की ओर बहते हैं, किन्तु । पडिसोयलद्धलक्खेणं = उस विषय-भोगों के प्रवाह से छूटकर । होउकामेणं = मुक्ति पाने की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि वे। अप्पा = अपनी आत्मा को । पडिसोयमेव = सदा विषय-काम-भोगों के उस प्रवाह से । दायव्वो = दूर रखें।
भावार्थ-अधिकांश सांसारिक लोग अनुस्रोत में यानी संसार प्रवाह में बह रहे हैं-भोगमार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है वह प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है। जो विषय-भोगों से विरक्त होकर संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को इस स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिये । अर्थात् विषयानुरक्ति से अपनी आत्मा को मोड़कर भोगमार्ग के प्रतिकूल त्वरित गति से चल देना चाहिये।
अणुसोयसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं ।
अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद
साधारण जन अनुस्रोत गमन, करने में अतिशय सुख पाता। पर जो सुविहित है साधु यहाँ, प्रतिस्रोत गमन उसको भाता ।।