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(द्वितीय चूलिका )
चरिया (विविक्तचर्या)
उपक्रम
इस चूलिका में साधु की चर्या, गुण और नियमों का उल्लेख किया गया है। 'चरिया गुणा य नियमा, य होंति साहूण दट्ठव्वा' । नियत वास न करना, सामूहिक भिक्षा करना, एकान्तवास करना, यह चर्या है । मूल
और उत्तर गुणों के रूप में क्रमश: पंच महाव्रत और पौरुषी आदि प्रत्याख्यान बताये गये हैं। स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि नियम हैं।
__ यह विवित्त चरिया' (विविक्त चर्या) नामक चूलिका टीकाकार श्री हरिभद्रसूरि के मतानुसार केवलीश्री सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुई कही जाती है। इसे एक साध्वीजी ने सुना । इसलिये ‘सुयं केवलिभासियं' ऐसा इस चूलिका के प्रारम्भ में कहा गया है। चूर्णियों के अनुसार शास्त्र के प्रति श्रद्धा एवं गौरव-बोध पैदा करने के लिये इसे केवलिभाषित कहा गया है। पर कालक्रम की दृष्टि से इसे श्रुतकेवलिभाषित मानने के प्रबल आधार हैं।
इस चूलिका के प्रारम्भ में यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्य लोक संसार-प्रवाह में अनुस्रोतगामी हुआ करते हैं अर्थात् वे दुनियादारी के बहाव में बहते रहते हैं । इन्द्रियों के विषयों में एवं भोगविलासों में प्रवृत्ति करते रहते हैं। साधु को ऐसा अनुस्रोतगामी नहीं होना चाहिए । अपितु संसार-प्रवाह के विरुद्ध प्रतिस्रोतगामी होना चाहिए। उसकी प्रवृत्ति संसार मार्ग से विपरीत और मोक्षमार्ग के अनुकूल होनी चाहिए। साधु की समस्त प्रवृत्तियाँ आत्माभिमुखी होनी चाहिए, संसाराभिमुखी नहीं, यह इसका प्रतिपाद्य विषय है।
चूलियं तु पवक्खामि, सुयं केवलिभासियं ।
जं सुणित्तु सपुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
स्थविरों से है सुनी हुई, और नित्य केवली से भाषित । वह विविक्त चर्या बोलूँगा, जो जिनवर से है अनुशासित ।। जिसको सुनकर पुण्यवान्, धर्म में बुद्धि लगाते हैं। तज जन्म-मरण के दृढ बन्धन, शाश्वत पद में मिल जाते हैं।।