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प्रथम चूलिका]
[303 भावार्थ-जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों, उस घोर विषधर सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही धर्म-भ्रष्ट एवं चारित्र रूपी श्री से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि की भाँति निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं। वह कहीं भी आदर नहीं पाता।
इहेव ऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुन्नामधिज्जं च पिहुज्जणम्मि।
चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिण्ण वित्तस्स य हेट्ठओ गई।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो धर्म पतित अधर्म सेवी, चारित्र विघातक है मुनिजन । अपने मनुष्य जीवन में वह, करता अधर्ममय दुराचरण ।। इससे होता है अयश उसे, अपकीर्ति फैलती है जग में।
सब तरह अधोगति होती है, बनता दुर्गम सकल जग में ।। अन्वयार्थ-धम्माउ = संयम-धर्म से । चुयस्स = च्युत-पतित । अहम्मसेविणो = अधर्म का सेवन करने वाला । संभिण्ण वित्तस्स = ग्रहण किये हए व्रतों को खण्डित करने वाला साधु । इहेव = इस लोक में । अधम्मो = अधर्म । अयसो = अपयश । य = और । अकित्ती = अपकीर्ति को प्राप्त होता है। च = और । पिहुज्जणम्मि = साधारण लोगों में भी । दुनामधिज्जं (दुन्नामधेज्ज) = बदनाम एवं तिरस्कृत होता है तथा । हेट्ठओ (हिट्ठओ) गई = परलोक में नरकादि नीच गतियों में उत्पन्न होकर असह्य दु:ख भोगता है।
भावार्थ-धर्म से च्युत होकर जो अधर्मसेवी संयम और चारित्र का खण्डन करता है, उसकी अपकीर्ति होती है। साधारण लोगों में भी उसका दुर्नाम होता है। मर कर वह अधोगति में जाता है। अपनी जन्म-मरण की शृंखला को बढ़ा लेता है।
भुंजित्तु भोगाइं पसज्झ चेयसा, तहाविहं कट्ट असंजमं बहुं ।
गइंच गच्छे अणभिज्झियं दुहं, बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद
वह संयम से भ्रष्ट साधु, आवेश पूर्ण मानसवाला। भोगों का प्रचुर भोग करके, संयम विहीन चलने वाला ।। अपने ही कर्मों से अनिष्ट, दु:ख पूर्ण योनि में जाता है।
ना सुलभ बोधि उसको होती, बहु जन्म-मरण वह पाता है ।। अन्वयार्थ-पसज्झचेयसा = तीव्र लालसा एवं गृद्धिभाव पूर्वक । भोगाई = भोगों को । भुंजित्तु = भोगकर । च = और । बहु = बहुत से । तहाविहं असंजमं = असंयमपूर्ण निन्दनीय कार्यों का । कटु =