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नौवाँ अध्ययन]
[263 प्राप्ति नहीं होती तो खेद नहीं करता है और इच्छानुसार आहार मिलने पर प्रशंसा भी नहीं करता। वह यथा लाभ सन्तुष्ट रहता है। ऐसा मुनि लोक पूज्य होता है।
संथार-सिज्जासण-भत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभेऽवि संते।
जो एवमप्पाणभितोसइज्जा, संतोसपाहण्णरए स पुज्जो ।।5।। हिन्दी पद्यानुवाद
संस्तारक शय्या अशन पान, अतिलाभासन मिलने पर भी।
अल्पेच्छा से सन्तोष करे, सन्तोष-परायण पूज्य वही ।। अन्वयार्थ-संथार = संस्तारक । सिज्जासण = शय्या, आसन । भत्तपाणे = और भक्त पान के सम्बन्ध में । अइलाभेऽवि संते = अधिक लाभ होते रहने पर भी। अप्पिच्छया = अल्प लेने की इच्छा रखता है, मूर्छा नहीं रखता। जो = जो। एवं = इस प्रकार। अप्पाणभितोसइज्जा (अप्पाणमभितोसइज्जा) = अपनी आत्मा को सन्तुष्ट रखता है। स = वह । संतोसपाहण्णरए = सन्तोष भाव की प्रधानता में रमण करने वाला । पुज्जो = पूज्य होता है।
भावार्थ-भोजन की तरह जो साधु संथारा, शय्या-स्थान और आहार-पानी में अल्प इच्छा वाला होता है, अधिक मिलने की स्थिति में भी थोड़ा लेता है। इस प्रकार जो अपने आप को यथा लाभ सन्तुष्ट रखता है, मानसिक संकल्प विकल्प नहीं करता, वह सन्तोष भाव में रमण करने वाला साधु लोक-पूज्य होता है।
सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं ।
अणासए जोउ सहिज्ज कंटए, वईमए कण्णसरे स पुज्जो।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद
धन की इच्छा आशा से नर, लोहे के काँटे सहन करता।
निस्पृह कानों में वचन बाण, जो सहता पूज्य वही बनता।। अन्वयार्थ-उच्छहया = धन आदि की इच्छा वाले । आसाइ (आसाए) = आशा से । नरेणं = मनुष्य । अओमया = लोहे के । कंटया = तीक्ष्ण काँटे । सक्का सहेउं = सहन कर सकते हैं। अणासए = किन्तु बिना आशा के । कण्णसरे = कान में बाण के समान चुभने वाले । जो उ वईमए कंटए सहिज्ज (सहेज्ज) = वचन रूपी काँटों को जो मुनि सहन करता है। स = वह । पुज्जो = लोक में पूज्य होता है।
भावार्थ-मनुष्य सर्दी-गर्मी का दुःख सह लेता है, लोभवश एक सैनिक हँसते-हँसते तीखे बाण सह लेता है, किन्तु बिना किसी स्वार्थ के दुर्वचन के काँटे जो कान में ही नहीं, हृदय में भी सदा शूल की तरह खटकते