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[दशवैकालिक सूत्र
भावार्थ- स्थविर भगवन्तों ने चार समाधि स्थान इस तरह बतलाये हैं- यथा - विनय-समाधि, श्रुतसमाधि, तप-समाधि, आचार-समाधि ।
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हिन्दी पद्यानुवाद
विए सुए य तवे, आयारे निच्चं पंडिया । अभिरामयंति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिया ।।1।।
जो नित्य जितेन्द्रिय और प्राज्ञ, श्रुत विनयाचार तथा तप में। होते वे करते सुप्रसन्न, अपनी आत्मा को इस जग में ।।
अन्वयार्थ - जे = जो । जिइंदिया = जितेन्द्रिय साधु । विणए = विनय में। सुए = श्रुत में । तवे = तप में । य (अ) आयारे = और आचार में। निच्चं = सदा । अप्पाणं = अपनी आत्मा को । अभिरामयंति = लगाये रखते हैं। पंडिया भवंति = वे पण्डित होते हैं।
भावार्थ-सिद्धान्त के अनुकूल पण्डित तो वे मुनि हैं, जो जितेन्द्रिय होकर विनय में, श्रुत में, तप में और पंचविध आचार में सदा अपनी आत्मा को रमाये रखते हैं । चतुर्विध समाधि के स्थानों में रमण करने वाले मुनि कभी अशान्ति अनुभव नहीं करते ।
आगे विनय समाधि के भेद और उसका स्वरूप बतलाते हैं
चउव्विहा खलु विणयसमाही भवइ । तं जहा - 1. अणुसासिज्जंतो सुस्सूसइ, 2. सम्मं संपडिवज्जइ, 3. वेयमाराहयइ, 4. न य भवइ अत्तसंपग्गहिए । चउत्थं पयं भवइ । भवइ य इत्थ सिलोगो ।
हिन्दी पद्यानुवाद
विनय समाधि निश्चय पूर्वक, हैं चार रूप कैसे कहे गए। पहला गुरु आदेश श्रवण, सादर वे जैसे बोल गए ।। प्रमुदित मन गुरु आज्ञा पालन, वैसा ही करता आराधन । पा ज्ञान प्रकाश ना गर्व करे, ये विनय समाधि के चार वचन ।।
अन्वयार्थ-विणयसमाही = विनय समाधि । खलु चउव्विहा = निश्चय से चार प्रकार की । भवइ = होती है । तं जहा = जैसे कि । अणुसासिज्जंतो = शिक्षा प्राप्त करते हुए । सुस्सूसइ = गुरुजनों की सेवा करना । सम्मं संपडिवज्जड़ = गुरु वचनों को सम्यक् प्रकार से ग्रहण एवं धारण करना । वेयमाराहयइ (बेयमाराहइ) = गुरु आज्ञा का पालन करना और । भवइ अत्तसंपग्गहिए = ज्ञान पाकर गर्व नहीं करना । चउत्थं पयं भवइ = यह अन्तिम चतुर्थ पद है । भवइ य इत्थ सिलोगो = यहाँ एक श्लोक भी है, जो इस प्रकार है
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