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दसवाँ अध्ययन
[283 न य वुग्गहियं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते।
संजम-धुव जोग जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू॥10॥ हिन्दी पद्यानुवाद
न कलहकारिणी कथा कहे, ना शान्त दान्त मुनि क्रोध करे।
संयम में ध्रुव-योग युक्त, उपशान्त, नम्रपद भिक्षु धरे ।। अन्वयार्थ-य जे = और जो । वुग्गहियं = विग्रहकारी । कह = कथा । न कहिज्जा (कहेज्जा) = नहीं कहता है । न य कुप्पे = और क्रोध नहीं करता है। निहुइंदिए = इन्द्रियों को वश में रखकर । पसंते = प्रशान्त रहता है। संजम धुव जोग (संजमे धुवं जोगेण) = संयम में मन-वचन-काय की। जुत्ते = स्थिरता वाला । उवसंते = उपशान्त । अविहेडए = किसी अन्य का तिरस्कार नहीं करता है। स = वह । भिक्खू = भिक्षु है।
भावार्थ-जैन-साधु गुरु के पास व्रत-ग्रहण करके ही सन्तुष्ट नहीं होता । वह अपनी दैनिकचर्या को बाहर और भीतर साधना के रंग में रंगने में सतत प्रयत्नशील रहता है। उसकी यह विशेषता है कि वह वाणी द्वारा कलहकारी कथा नहीं कहता और न स्वयं अप्रिय सनकर कपित ही होता है। प्रशान्त एवं सदा प्रसन्नचित्त रहता है। निराकुल-भाव में रहते हुए और किसी का तिरस्कार नहीं करते हुए जिसके मन-वाणी एवं काया संयम में अचल एवं अडिग रहते हैं, वही भिक्षु है।
जो सहइ उ गामकंटए, अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य ।
भयभेरवसद्दसप्पहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खू ।।11।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो सहता ग्राम कंटकों को, आक्रोश-प्रहार जन-तर्जन को।
भय भैरव ध्वनि और अट्टहास, सुख-दुःख में सम भिक्षु कहो उसको ।। अन्वयार्थ- जो= जो साधु । अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य = आक्रोश, प्रहार और तर्जना रूप । गाम कंटए = इन्द्रियों के लिये काँटों की तरह चुभने वाले स्पर्शों को । सहइउ (हु) = सहन करता है। य = और । भय-भेरव-सद्द = अत्यन्त भयानक शब्द और । सप्पहासे = अट्टहास वाले स्थान में । समसुहदुक्ख = सुख-दुःख को समभाव से । जे सहे = जो सहन करता है । स भिक्खू = वह भिक्षु है।
भावार्थ-जो साधु इन्द्रियों को काँटों की तरह चुभने वाले आक्रोश भरे कर्कश वचन आदि के प्रहार और ताड़ना, तर्जनादि को शान्त मन से सहन कर लेता है तथा जहाँ बेताल आदि के अत्यन्त भयोत्पादक शब्द एवं डरावने अट्टहास आदि होते हैं, उन स्थानों में आकुल-व्याकुल न होकर जो सुख-दुःख को समान