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दसवाँ अध्ययन]
[281 हिन्दी पद्यानुवाद
जो चार कषाय सतत छोड़ें, जिनवाणी में हो निश्चल मन ।
क्रय-विक्रय कर्म छोड़े भिक्षु, जो रजत स्वर्ण से रहित अधन ।। अन्वयार्थ-चत्तारि = जो चार । कसाए = कषायों का । सया = सदा । वमे = परित्याग करता है। य बुद्धवयणे = और जिनराज के वचनों में । धुवयोगी = अटल श्रद्धा रखने वाला । हविज्ज (हवेज्ज) = है। अहणे = अधन-बिना धन के। निज्जायरूवरयए = सोना-चाँदी रहित है। गिहिजोगं = क्रयविक्रय आदि गृहस्थ के कार्यों को । परिवज्जए = छोड़ चुका है। स भिक्खू = वह भिक्षु है।
भावार्थ-जैन साधु आरम्भ-परिग्रह का सम्पूर्ण त्यागी और वीतराग भाव का उपासक होता है। उसके तन-मन और वाणी के व्यवहार सदा संयम-भाव में प्रमाद रहित होते हैं। स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, आदि निरवद्य कार्यों में जो स्थिर हो जाता है, वह योगी कहलाता है। इसीलिये कहा है कि जो क्रोध, मान, माया एवं लोभ का परित्याग करता है और क्रय-विक्रय आदि गृहस्थ के कार्यों का सदा वर्जन करता है, वही भिक्षु है।
सम्मदिट्ठी सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे य ।
तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ।।7।। हिन्दी पद्यानुवाद
नित्य अमूढ सम्यग् दृष्टि, जो रहे ज्ञान तप संयम में ।
तप द्वारा पूर्व पाप क्षयकर, संवृत-त्रियोग भिक्षु जग में ।। अन्वयार्थ-जे सम्मदिट्ठी (सम्मद्दिट्ठी) = जो सम्यग् दृष्टि । सया हु = सदा ही। नाणे = ज्ञान-वाचना आदि । तवे संजमे य = तप और संयम में । अमूढे अत्थि = अमूढ है, अर्थात् जागृत है। तवसा = तपस्या से । पुराणपावगं = प्राचीन संचित पाप कर्मों को । धुणइ = धुनकर अलग कर देता है। मणवयकाय = मन, वचन और काया से । सुसंवुडे = गुप्त है। स = वह । भिक्खू = भिक्षु है।
भावार्थ-साधु की दिनचर्या का वर्णन करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है कि-सम्यग् दृष्टि साधक सदा ज्ञान, तप और संयम के सम्बन्ध में विवेक से चलता है । मन, वाणी और काय-योग की चंचलता कर्म ग्रहण में प्रमुख कारण है, इसी से शुभाशुभ कर्म आते हैं, अत: मुमुक्षु मन, वाणी और काया के अशुभ योगों को रोककर शुभ योग में और शुभ योग से शुद्ध, शुद्धत्तर एवं शुद्धतम योग की ओर बढ़ता है और निर्दोष तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है, वह सच्चा भिक्षु है।
तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू।।8।।