Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 305
________________ प्रथम चूलिका] [293 हिन्दी पद्यानुवाद नीच जनों का पुरस्कार, गृह के वासी जन करते हैं, सत्कार असंयम वालों का, करना कर्त्तव्य समझते हैं। अब तक पाले संयम से, यदि ये मेरे पाँव फिसलते हैं, तो अर्थ साफ है वान्त का, हम पान स्वयं ही करते हैं ।। अन्वयार्थ-ओमजणपुरक्कारे = दुष्टजनों की गरज एवं सेवा-सत्कार करनी पड़ती है। य = और । वंतस्स = जिन पदार्थों का एक बार वमन यानी त्याग कर दिया था। पडियाइयणं = उन्हीं छोडे गये पदार्थों का फिर सेवन करना पड़ेगा। भावार्थ-5. गृहवासी को दुष्ट जनों का भी सत्कार करना होता है, कामी, भोगी, दु:राचारी, व्यसनियों का सत्कार करना पड़ता है। 6. संयम को छोड़कर घर में जाने का अर्थ है-वमन किये हुए को वापस पीना। 7. अहरगइवासोवसंपया। 8. दुल्लहे खलु भो ! गिहीणं धम्मे, गिहिवासमझे वसंताणं । हिन्दी पद्यानुवाद जाना गृहस्थ के आश्रम में, मेरे हित में संयम तजकर, है दुःखदायी अपमान युक्त, नारक जीवन से भी बढ़कर । हाँ ! रहते हुए गृहस्थी में, उन गृहस्थ जन के हित में, निश्चय दुर्लभ है धर्म स्पर्श, सब कुछ दुर्लभ उसके हित में ।। अन्वयार्थ-अहरगइवासोवसंपया = संयम छोड़कर गृहस्थाश्रम में जाना मानो साक्षात् नरक गति में जाने की तैयारी करना है। भो ! = हे आत्मन! गिहिवासमझे = गहस्थ जीवन में (पन: जाना वसंताणं = गृहवास रूपी पाश में बन्धे हुए (बसे हुए)। गिहीणं = गृहस्थों के लिये । धम्मे = धर्म ध्यान में रमण करना धर्म का यथावत् पालन करना । खलु दुल्लहे (दुल्लभे) = निश्चय ही दुर्लभ है, कठिन है। भावार्थ-7. संयम छोड़कर गृहवास में जाने का अर्थ है-नारकीय जीवन को अंगीकार करना । 8. ओह ! गृहवास में रहते हुए गृहस्थों के लिए धर्म का पूर्ण स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है। 9. आयंके से वहाय होइ। 10. संकप्पे से वहाय होइ। 11. सोवक्केसे गिहिवासे, णिरुवक्केसे परियाए। 12. बंधे गिहिवासे, मुक्खे परियाए। हिन्दी पद्यानुवाद होता है भयंकर रोग महा, वध हेतु गृहस्थों के घर में । होते हैं अनेक संकल्प वहाँ, वध हेतु सदा उनके मन में ।।

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