Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 308
________________ 296] [दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-17. ओह ! मैंने इससे पूर्व बहुत ही पाप कर्म किये हैं। अर्थात् मेरे बहुत ही प्रबल पापकर्मों का उदय है। इसीलिये संयमी जीवन छोड़ देने के निन्दनीय विचार मेरे हृदय में उत्पन्न हो रहे हैं। 18. पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुव्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेइत्ता' मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता । अट्ठारसमं पयं भवइ। हिन्दी पद्यानुवाद दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम, के द्वारा जो पाप किये । जब तक उन अर्जित पापों का, ना कोई फल भोग लिये ।। अथवा तप के द्वारा जब, वे कर्म क्षीण हो जाते हैं। निश्चय तभी किसी प्राणी को, मोक्ष धाम मिल पाते हैं ।। संयम से मन जब हो चंचल, तो इन बातों पर ध्यान धरे। इन कथित अठारह स्थानों से, मन श्रद्धा एवं सद्ज्ञान करे ।। सोचे दुर्लभ नर जीवन को, है व्यर्थ गँवाना ठीक नहीं। कर्मों को भोगे बिन भला, क्या मिल पाता है मोक्ष कहीं।। अन्वयार्थ-च = और । खलु भो ! = निश्चय ही हे आत्मन् ! दुच्चिण्णाणं = दुष्ट भावों से दुष्ट विचारों से तथा । दुप्पडिक्कंताणं = मिथ्यात्व आदि दुष्कृत्यों से । कडाणं = उपार्जित किये हुए । पुव्विं पावाणं कम्माणं = पहले के पाप कर्मों के फल को । वेइत्ता (वेयइत्ता) = भोगने के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु । अवेयइत्ता (अवेइत्ता) = कर्मों का फल भोगे बिना । नत्थि = मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। वा = अथवा । तवसा = तप त्याग द्वारा । झोसइत्ता मोक्खो = उन कर्मों को क्षय कर देने पर ही मोक्ष मिलता है। अटारसमं = यह अठारहवाँ । पयं = पद । भवइ = है। भावार्थ-18. ओह ! दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अर्जित किए हुए पाप कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है, यानी उनसे छुटकारा मिलता है। उन्हें भोगे बिना अथवा तप के द्वारा उनका क्षय किये बिना मोक्ष नहीं होता, उनसे छुटकारा नहीं होता। यह अठारहवाँ पद है। भवइ य इत्थ सिलोगो। अन्वयार्थ-य= और । इत्थ = इन अठारह विषयों पर । सिलोगो = श्लोक भी। भवइ = हैं, जो इस प्रकार हैं। भावार्थ-और इन अठारह विषयों पर श्लोक भी हैं, जो इस प्रकार हैं जया य चयइ धम्मं, अणज्जो भोगकारणा। से तत्त मुच्छिए बाले, आयइं नावबुज्झइ ।।1।। 1. वेयइत्ता - पाठान्तर।

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