Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 311
________________ प्रथम चूलिका ] हिन्दी पद्यानुवाद 1 प्रव्रजित काल में 'साधु मान्य, बन जाता है जग के जन में हो गृहस्थ बनता अमान्य, जिससे दु:ख पाता है मन में ।। वह करता परिताप बहुत, निज पूर्व दशा का चिन्तन कर । जैसे छोटे गाँव बीच, दु:ख पाता सेठ बन्ध पाकर ।। अन्वयार्थ-जया = जिस समय साधु संयमी जीवन में रहता है उस समय तो । माणिमो (माणिओ) = सब लोगों के लिये माननीय । होइ = होता है । य = किन्तु । पच्छा = संयम से भ्रष्ट हो जाने के बाद । अमाणिमो (अमाणिओ) = अमाननीय । होइ = हो जाता है। कब्बडे (कव्वडे ) = जिस प्रकार किसी छोटे से गाँव में। छूढो = अनिच्छापूर्वक रखा हुआ । सेट्ठिव्व (सिट्ठिव्व) = सेठ पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार । स = वह संयम भ्रष्ट साधु भी । पच्छा = गृहवास में आने के बाद । परितप्पड़ = परिताप करता है, पश्चात्ताप करता है । भावार्थ-प्रव्रजित काल में साधु सब के लिये आदरणीय एवं मान्य होता है पर वही जब उत्प्रव्रजित होकर गृहस्थ दशा में चला जाता है तो अनादरणीय एवं अमान्य बन जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे किसी छोटे से गाँव में बिठा दिया गया बड़े शहर का सेठ परिताप करता है । हिन्दी पद्यानुवाद [299 जया य थेरओ होइ, समइक्कंत जोव्वणो' । मच्छोव्व' गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पड़ |16|| 1. जुव्वणो पाठान्तर । 2. मच्छुव्व पाठान्तर । जाती है बीत जवानी जब, वह पतित साधु बूढ़ा होता । सेवा सम्मान नहीं मिलता, कर मल मल वह पछताता ।। ज्यों कंट निगलकर मत्स्य कभी, पीड़ा से पीड़ित है होता । वैसे ही वह निज करनी पर, हो दुःखी हृदय से है रोता ।। अन्वयार्थ-मच्छोव्व (मच्छुव्व) = जिस प्रकार लोहे के काँटे पर लगे हुए माँस अथवा आटे को खाने के लिये मछली उस काँटे पर झपटती है, किन्तु । गलं गिलित्ता = गले में वह काँटा फँस जाने के कारण पश्चात्ताप करती हुई मृत्यु को प्राप्त होती है, उसी प्रकार । पच्छा = संयम से भ्रष्ट होने के बाद वह संयम भ्रष्ट साधु । समइक्कंत जोव्वणो (समइक्कंत जुव्वणो ) = यौवन अवस्था के बीत जाने पर । जया य = जब । थेरओ होइ = वृद्धावस्था को प्राप्त होता है तब । स = वह संयम भ्रष्ट साधु । परितप्पड़ = परिताप करता है, पश्चात्ताप करता है । भावार्थ-यौवन के बीत जाने पर जब वह उत्प्रव्रजित साधु वृद्धावस्था में पहुँचता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे काँटे को निगलने वाला मत्स्य ।

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