Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 291
________________ दसवाँ अध्ययन] [279 अनुमोदन नहीं करने का आशय भी इसके अन्तर्गत समझ लेना चाहिये। क्योंकि साधु त्रिकरण-त्रियोग से त्यागी होता है। अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। बीयाणि सया विवज्जयंतो, सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद ना हवा करे ना करवाए, काटे न हरित ना कटवाए। बीजों का त्यागी सतत भिक्षु, जो कभी सचित्त नहीं खाए।। अन्वयार्थ-अनिलेण = वायु से शरीर आदि का । न वीए = विजन (हवा) करता नहीं। न वीयावए (विआवए) = हवा कराता नहीं। हरियाणि (हरिआणि) = हरित वनस्पति का । न छिंदे = छेदन करता नहीं । न छिंदावए = दूसरों से छेदन करवाता नहीं । सया = सदा । बीयाणि = बीजों के स्पर्श का। विवज्जयंतो = वर्जन करता है। सच्चित्तं = सचित्त फलादि का । जे = जो । न आहारए = आहार नहीं करता । स = वह । भिक्खू = भिक्षु है। भावार्थ-जैन-दर्शन वनस्पतिकाय को भी सजीव मानता है। इसलिये जैन साधु अत्यन्त भूख लगने पर भी फल-फूल-कंद-मूल आदि किसी भी प्रकार की वनस्पति का भक्षण नहीं करता । सूत्रकृतांग सूत्र के सप्तम अध्याय में कहा गया है-“हरित वनस्पति सजीव है । मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्र, फल, फूल आदि में पृथक्-पृथक् जीव रहते हैं । जो व्यक्ति अपने सुख के हेतु, अपने आहार अथवा शरीर-पोषण के हेतु इनका छेदन करता है, वह धृष्ट पुरुष बहुत से प्राणियों का विनाश करता है। जो असंयमी अपने सुख के लिये बीजादि का नाश करता है, वह अंकर की उत्पत्ति और बीज के नाश से फल-वद्धि का विनाश करता है। अत: वह व्यक्ति अपनी आत्मा को दण्डित करता है। प्रत्यक्षदर्शी तीर्थंकरों ने उसे अनार्य धर्मी कहा है।" जो साधु पंखे आदि से स्वयं हवा नहीं करता, दूसरों से करवाता नहीं । हरित-फल-फूल, पत्ता, शाखा आदि का छेदन करता नहीं, करवाता नहीं और सदा बीजों के स्पर्श का वर्जन करता तथा सचित्तसजीव पदार्थ का आहार नहीं करता, वही भिक्षु है। साधु के 22 परीषहों में कहा गया है-साधु काक की जंघावत् कृष-काय होकर भिक्षा में आहार की मात्रा का ध्यान रखकर अदीन भाव से चले। वहणं तसथावराण होइ, पुढवी तणकट्ठनिस्सियाणं । तम्हा उद्देसियं न भुंजे, णो वि पए न पयावए जे स भिक्खू।।4।। 1. हरिताणि भूताणि विलंबगाणि, आहार देहाई पुढो सिताई। जे छिंदतो आतसुहं पडुच्चा पागब्भि, पाणे बहुणं तिवाती ।।8।। जातिं च बुड्डिं च विणासयंते, बीयादि असंजय आयदंडे। अहाहु से लोए अणज्ज धम्मे, बीयादि जे हिंसति आयसाते ।।9 ।। -सूत्रकृतांग अध्ययन 7

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