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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
ना जाति गर्व ना रूप गर्व, ना लाभ तथा श्रुत गर्व करे।
जो धर्म ध्यान रत तज सब मद, जग में उसको ही भिक्षु कहे ।। अन्वयार्थ-जे = जो । जाइमत्ते = जाति का मद । ण = नहीं करे । य = और । रूवमत्ते = रूप मद । ण = नहीं करे । न लाभमत्ते = लाभ का मद नहीं करे । न सुएण मत्ते = श्रुत का मद भी नहीं करे । सव्वाणि = सब । मयाणि = मदों को। विवज्जइत्ता = छोड़कर । धम्मज्झाणरए = धर्म ध्यान में रत रहता है। स = वह । भिक्ख = भिक्षु है।
भावार्थ-जैन धर्म की यह शिक्षा है कि जीवन को परिवर्तनशील समझ कर कल्याणार्थी साधु कुल, जाति, बल, रूप, लाभ, तप, श्रुत और ऐश्वर्य का कभी मद नहीं करे । क्योंकि ऐसा कोई स्थान या कुल नहीं है, जहाँ इस जीव ने स्वयं ने जन्म-मरण नहीं किया हो। “असई उच्चागोए, असई नीयागोए” इस जीव ने अनेक बार उच्च और नीच-गोत्र में भ्रमण कर लिया है, फिर किस बात का गर्व करे। इस जिन-वचन को ध्यान में रखकर जो सभी मदों का परित्याग करके धर्म-ध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है।
पवेयए अज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि।
निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंग, न यावि हासं कुहए जे स भिक्खू ॥20॥ हिन्दी पद्यानुवाद
दे बोध आर्य पद का सुसाधु, धर्म स्थित पर को करे अटल।
दीक्षित हो तज दे गृही लिंग, है भिक्षु हास्य गत कौतुहल ।। अन्वयार्थ-जे = जो । महामुणी = महामुनि । अज्जपयं = पापरहित आर्य पद का । पवेयए = उपदेश करता है। धम्मे ठिओ = धर्म में स्थित होकर । परंपि ठावयई = दूसरों को भी स्थिर करता है। निक्खम्म = दीक्षा ग्रहण करके । कुसीललिंग = क्रिया रहित वेषधारी के लिंग का। वजेज (वज्जिज्ज) = वर्जन करता । यावि हासं कुहए = और हँसी-मजाक, कुचेष्टा । न = नहीं करता । स भिक्खू = वह भिक्षु है।
भावार्थ-घर से मुनिव्रत की आराधना के लिये निकलकर जो महामुनि जन-समाज में पाप रहित आर्य पद अर्थात् सच्चे शुद्ध धर्म का उपदेश करता है, स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म-मार्ग में स्थिर करता है, साधु का वेष धारण कर गृहस्थ जैसे आचरण करने वाले वेष का परिवर्जन कर हास्य और कुचेष्टाओं से जो मोह भाव को उत्तेजित नहीं करता, वही भिक्षु है।