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दसवाँ अध्ययन
तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्च हिअट्ठिअप्पा। छिंदित्तु जाई मरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ।।21।।
त्ति बेमि।। हिन्दी पद्यानुवाद
मोक्षार्थी आत्मा त्याग करे, क्षणभंगुर अशुचिवास तन को।
छेदन कर जाति मरण बन्धन, पाता है भिक्षु मोक्ष पद को।। अन्वयार्थ-निच्च हिअट्ठिअप्पा = जो सदा मोक्ष रूप कल्याण-मार्ग में स्थित आत्मा वाला है, वह । तं = उस । असुई = अशुचि । असासयं = अशाश्वत नाशवान । देहवासं = देहवास-शरीरवास का। सया = सदा। चए = त्याग करे । जाईमरणस्स = जन्म-मरण के । बंधणं = बन्धन को। छिंदित्तु = काटकर । भिक्खू = भिक्षु । अपुणागमं = पुनरागमन रहित । गई = गति को । उवेइ = प्राप्त करता है।
भावार्थ-कल्याण-मार्ग में जिसकी आत्मा सदा स्थित है, ऐसा भिक्षु मल-मूत्रादि भरे अस्थायी शरीर-पिण्ड का परित्याग करता, ममता का वर्जन करता, जन्म-मरण के बन्धनों को काटकर जहाँ से फिर लौटकर नहीं आते, उस अपुनर्गति वाले स्थान को प्राप्त करता है। ऐसा मुनि सदाकाल के लिये आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इसी को गीताकार ने कहा है कि “यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धामं परमं मम।"
ऐसा मैं कहता हूँ।
। दसवाँ अध्ययन समाप्त ।। X286888888888888