Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 302
________________ प्रथम चूंलिका रवक्का (रतिवाक्या) उपक्रम जिस प्रकार पर्वत के अग्रभाग को चूला (शिखर) कहा जाता है, उसी प्रकार प्रस्तुत दशवैकालिक सत्र की समाप्ति पर उसके शिखर के रूप में दो चलिकाएँ कही गई हैं। प्रथम चूलिका का नाम 'रइवक्का' (रतिवाक्या) और द्वितीय चूलिका का नाम 'विवित्त चरिया' (विविक्त चर्या) है। ‘संयमे रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्या' संयम में रति उत्पन्न करने वाले वचन जिसमें हो, वह रतिवाक्या' चूलिका है। संयम ग्रहण करने के पश्चात् किन्हीं भी अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों के कारण संयम में यदि अरति (अरुचि) उत्पन्न हो जाय और साधक का चित्त संयम को छोड़कर गृहवास में जाने का हो जाय तो वैसी स्थिति में संयम छोड़ने से पूर्व इस चूलिका में बताये गये अठारह स्थानों पर उसे गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। इसमें वर्णित ये अठारह स्थान इतने वैराग्य गर्भित एवं प्रभावोत्पादक हैं कि संयम में अस्थिर बने हुए साधक का मन संयम में पुन: उसी तरह स्थिर हो जाता है जैसे अंकुश से हाथी, लगाम से घोड़ा और पताका से पोत स्थिर हो जाते हैं। प्रस्तुत चूलिका में वर्णित अठारह स्थानों में मुख्यतया गृहस्थाश्रम की अनुपादेयता और संयम की उपादेयता का सचोट वर्णन है। गृहस्थाश्रम को घोर क्लेशमय, बन्धनकारक और सावद्य बताया गया है, जबकि संयम को सुखमय, क्लेश रहित, स्वतन्त्र (मोक्षरूप) और निरवद्य बताया गया है। मानवीय कामभोगों को क्षणिक, तुच्छ और असार बताया गया है। साधक संयम से ऊबकर गृहस्थाश्रम में जाना चाहता है, परन्तु उसे सावधान करते हुए कहा गया है कि भोगों से तृप्ति की आशा मत करो। उनसे तृप्ति की आशा करना दुराशामात्र है। अत: आकांक्षा रहित होकर संयम का पालन किया जाय तो वह स्वर्ग के समान सुखदायी है और यदि आकांक्षा है तो संयम दु:ख रूप है। इस प्रकार संयम की उभयरूपता बताकर संयम में रमण करने का उपदेश, इस चूलिका में दिया गया है। इह खलु भो ! पव्वइएणं उप्पण्णदुक्खेणं संयमे अरइसमावण्णचित्तेणं, ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सि-गयंकुसं-पोयपडागाभूयाइं इमाई अट्ठारसठाणाई सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति । तं जहा

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