Book Title: Dash Vaikalika Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 297
________________ दसवाँ अध्ययन] [285 भावार्थ-जो समय-समय पर शरीर विभूषा आदि का त्याग करता है और स्नान-मर्दन, विलेपन नहीं करता। कोई गाली दे, लकड़ी आदि से पीटे या शस्त्र से अंगादि का छेदन करे, तब भी मुनि पृथ्वी के समान सहिष्णु होते हैं । छेदन, भेदन, या पूजन में राग-द्वेष नहीं करते, तप का निदान नहीं करते और फल की आकांक्षा से रहित होते हैं, वे भिक्षु कहलाते हैं। अभिभूअ काएण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं । विइत्तु जाई मरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद जिन तन से परीषह को जयकर, भव से अपना उद्धार करे । जान महाभय जन्म मरण, मुनिता तप में रत भिक्षु धरे ।। अन्वयार्थ-जे = जो । काएण = काया से । परीसहाई = परीषहों को । अभिभूअ (अभिभूय) = पराजित करके । जाईमरणं (जाइमरणं) = जन्म-जरा-मरण को । महब्भयं = भयंकर । विइत्तु = जानकर । अप्पयं = अपनी आत्मा का । जाइपहाओ (जाइपहाउ) = संसार समुद्र से । समुद्धरे = उद्धार करता है। सामणिए = श्रमण-धर्म के । तवे रए = तप में रत रहता है । स भिक्खू = वह भिक्षु है। भावार्थ-जो शरीर से भूख-प्यास आदि परीषहों को पराजित करता है और जन्म-जरा-मरण को भयंकर जानकर जो अपनी आत्मा का भवसागर से उद्धार कर लेता है तथा श्रमण-धर्म के विशुद्ध तप में रत रहता है, वही भिक्षु है। हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू।15।। हिन्दी पद्यानुवाद कर एवं चरणों का संयत, वाणी संयत और इन्द्रिय जित । सुसमाधिवन्त अध्यात्म लीन, सूत्रार्थ ज्ञात वह भिक्षु कथित ।। अन्वयार्थ-जे = जो साधु । हत्थसंजए = हाथ से संयत । पायसंजए = पाँव को संयम में रखने वाला । वायसंजए = वाणी से संयत । संजइंदिए = इन्द्रियों के संयम वाला। अज्झप्परए = अध्यात्मशुभ ध्यान में रत । सुसमाहियप्पा = समाधियुक्त आत्मा वाला । च = और । सुत्तत्थं = सूत्र-अर्थ का। वियाणई = सम्यक् ज्ञाता है। स भिक्खू = वह भिक्षु है। भावार्थ-साधु पूर्ण संयमी होता है। वह हाथ, पैर, वाणी व इन्द्रियों से संयत होता है, कच्छप के

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