________________
282] हिन्दी पद्यानुवाद
वैसे ही अशन पान अथवा, जो विविध स्वाद्य खादिम पाए । आयेंगे काम कल या परसों, भिक्षु न रक्खे न रखवाए ।।
[दशवैकालिक सूत्र
अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही । असणं पाणगं = अन्न आदि, पेय पदार्थ जलादि । विविहं = अनेक प्रकार के । खाइमं = खाद्य - मिष्टान्न आदि । वा साइमं = अथवा स्वाद्य, चूर्ण, लवंग, सुपारी आदि को । लभित्ता = प्राप्त करके । सुए वा = कल या । परे = परम दिन ( परसों) यह । अट्ठो होही = काम आवेगा, ऐसा सोचकर । तं जे = उसको, जो । न निहे = न स्वयं रखता है और । न निहावए = न औरों से रखवाता है । स भिक्खू = वह भिक्षु है ।
भावार्थ-जैन साधु परदत्तभोजी होता है । विहार-चर्या में भिक्षा प्राप्त नहीं होने पर उसे भूखा रहना पड़ता है । ऐसी स्थिति में अशन-पान, मेवा-मिष्टान्न और स्वाद्य पदार्थों को इच्छानुसार प्राप्त करके भविष्य में कल या परसों यह काम आवेगा, इस विचार से उस अशन-पानादि को जो न अपने पास संग्रह करके रखता है और न दूसरों से कहकर उनके पास रखवाता है, वही सच्चा भिक्षु है ।
तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लभित्ता । छंदिय साहम्मियाण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू ||9|| हिन्दी पद्यानुवाद
वैसे ही अशन पान अथवा, जो विविध स्वाद्य खादिम पाये। खाये साधर्मिक संग बांट, खा पढ़े भिक्षु वह कहलाये ।।
T
अन्वयार्थ - तहेव = वैसे ही । असणं पाणगं = अशन व पेयादि पदार्थ । वा = अथवा । विविहं = अनेक प्रकार के । खाइमं साइमं = खाद्य-स्वाद्य-सुपारी - चूर्ण आदि को । लभित्ता = प्राप्त करके । जे साहम्मियाण (साहम्मिआण) = जो स्वधर्मियों को । छंदिय (छंदिअ ) = निमन्त्रित करके । भुंजे = खाता | भुच्चा = और खाकर । सज्झायरए = स्वाध्याय में रमण करता है । स = वह । भिक्खू = भिक्षु है ।
भावार्थ-साधु साधनाशील होता है। वह स्वाद्य (स्वाद) प्रिय नहीं होता । भिक्षा में इच्छानुकूल अशन-पान-स्वादिष्टमेवा-मिष्टान्न, और मुख-शुद्धि के पदार्थ पाकर भी स्वधर्मी साधु मण्डल को प्रथम निमन्त्रित करता है, फिर उनको देकर स्वयं खाता है। फिर खा-पीकर-स्वाध्याय, ध्यान में लीन हो जाता है । वही सही अर्थों में भिक्षु है । आत्मार्थी साधु-स्वस्थ दशा में खा पीकर सुखपूर्वक नींद नहीं निकालता । क्योंकि इससे प्रमाद बढ़ता है और इस प्रकार प्रमाद बढ़ाने वाले को शास्त्र की भाषा में पाप श्रमण कहा गया है। (देखिए उत्तराध्ययन सूत्र का 17वाँ अध्ययन) ।