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नौवाँ अध्ययन]
[275 अन्वयार्थ-जिणवयणरए = जिन वचनों में रत । अतिंतिणे = अप्रलापी यानी कठोर वचन नहीं बोलने वाला अथवा व्यर्थ प्रलाप नहीं करने वाला। आययट्ठिए = वह मोक्षार्थी । दंते = जितेन्द्रिय । पडिपुण्णाययं = शास्त्रीय तत्त्वों को भलीभाँति जानकर । आयार समाहि = आचार समाधि द्वारा । संवुडे = इन्द्रिय और मन का संवरण करने वाला । य = और । भावसंधए भवइ = आत्मा को शुद्ध भाव से जोड़ने वाला होता है यानी शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेने वाला होता है।
भावार्थ-आत्म-कल्याण की प्रबल इच्छा वाला साधक जिन वचनों में लीन और अप्रिय-कटु शब्दों का परित्याग करने वाला आचार-समाधि से इन्द्रिय एवं मन का संयम कर लेता है। वह जितेन्द्रिय मोक्ष-मार्ग को निकट करता है । टूटती हुई भावनाओं को जोड़कर उदय भाव से क्षायिक भाव की ओर बढ़ने में गतिशील रहता है। आचार-पालन में इस लोक व परलोक के पौद्गलिक सुख की प्राप्ति का लक्ष्य नहीं होने से साधक संकल्प-विकल्प के चक्कर से मुक्त रहकर भव-मार्ग से हटकर शिव-मार्ग की ओर बढ़ जाता है।
अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्धो सुसमाहिअप्पओ।
विउलहिअं सुहावहं पुणो, कुव्वइ से पयखेममप्पणो।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद
कर ज्ञान समाधि स्थानों का, निर्मल विशुद्ध आत्मावाला।
सुखदायी विपुल लाभ करके, फिर होता आत्म-क्षेम वाला ।। अन्वयार्थ-चउरो = चारों प्रकार की इन । समाहिओ = समाधियों के स्वरूप को । अभिगम = जानकर । सुविसुद्धो = विशुद्ध चित्त वाला । य = और । सो = वह मुनि । सुसमाहिअप्पओ = संयम में अपनी आत्मा को सुस्थिर करने वाला । विउलहिअं (विउलहियं) = पूर्ण हितकारी । सुहावहं = सुखदायी। पुणो = एवं । खेमं पयं = कल्याणकारी निर्वाण पद को । कुव्वइ = प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-उपर्युक्त चारों समाधियों को जानकर शुद्ध भाव वाले, साधकों का मात्र एक ही लक्ष्य होता है कि जितना हो सके, इस अनित्य शरीर से अविनाशी सदा सुखदायी शिवपद की साधना कर ली जाय । यही चरम और परम इष्ट तत्त्व है।
जाइमरणाओ मुच्चइ, इत्थंत्थं च चयइ सव्वसो । सिद्धे वा भवइ सासए, देवे वा अप्परए महिड्डिए ।।7।।
त्ति बेमि।।