________________
नौवाँ अध्ययन]
[273 सुरपुर भोग वासना वश भी, मुनि जन तप को नाही करे।
या करे न तप सुयश हेतु, पर कर्म निर्जरा हेतु करे ।। अन्वयार्थ-तवसमाही = तप समाधि । खलु = निश्चय ही। चउव्विहा = चार प्रकार की। भवइ = होती है। तं जहा = जैसे । इहलोगट्ठयाए = इस लोक के सुख के लिये । तवं नो = तप नहीं। अहिट्ठिज्जा = करें । परलोगट्ठयाए = परलोक में दिव्य सुख के लिये । तवं नो = तप नहीं । अहिट्ठिज्जा = करे । कित्ति = सर्वलोक में गुण-कीर्तन हो, इस इच्छा से । वण्ण = एक दिशा व्यापी यश मिले इस हेतु । सद्द = अर्द्ध दिशा व्यापी यश मिले, इस आकांक्षा से। सिलोगट्ठयाए = ग्राम-नगर में प्रशंसा हो इसके लिये । तवं नो अहिट्ठिज्जा = तप नहीं करे । अन्नत्थ निज्जरट्ठयाए = निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोजन से । तवं न अहिट्ठिज्जा = तप को नहीं करे । चउत्थं पयं भवइ = यह अन्तिम चौथा पद है। य इत्थ सिलोगो भवइ = और यहाँ श्लोक भी है।
विविहगुणतवोरए य णिच्चं, भवइ निरासए णिज्जरट्ठिए।
तवसा धुणइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद
तज आशा निर्जरा हेतु, जो नित्य विविध गुण तप में रत ।
संचित पाप तम नष्ट करे, उसका जो तप में सदा निरत ।। अन्वयार्थ-विविहगुण = विविध गुण वाला । तवोरए = तप में रत रहने वाला । य निरासए = और पौद्गलिक फल की इच्छा नहीं रखने वाला। निज्जरट्ठिए = निर्जरा का अर्थी । भवइ = रहने वाला। णिच्चं = निरन्तर । तवसमाहिए सया जुत्तो = सदा तप समाधि में लगा रहने वाला । तवसा पुराणपावगं = तपस्या से संचित पाप-कर्मों को। धुणइ = आत्मा से अलग कर लेता है।
भावार्थ-लोग पुत्र-लाभ, भोग-लाभ, राज्य-लाभ आदि के लिए तप करते हैं, किन्तु शास्त्रकार ने इस प्रकार किये जाने वाले तप को समाधि का कारण नहीं माना, क्योंकि वहाँ संकल्प-विकल्प बना रहता है। यह धर्म-तप इन सब आकांक्षाओं से परे होता है। अत: यह समाधि स्थान है । जो फल की प्राप्ति की कामना के बिना तप करता है, उसके इहलोक और परलोक दोनों पवित्र होते हैं। सूत्र के भाव को एक श्लोक के द्वारा इस प्रकार कहा गया है।
सर्वदा विविध गुण वाले तप में रत रहने वाला जो साधक पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होकर केवल निर्जरा का अर्थी होता है, वह तपसमाधि में लीन रहते है ने पुराने संचित कर्मों का नाश कर देता है।