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[दशवैकालिक सूत्र
भवइ = होती है । तं जहा = जैसे कि । मे सुयं भविस्सइ त्ति = मुझे आचारांग आदि श्रुत का लाभ होगा, इसलिये । अज्झाइयव्वं भवइ = अध्ययन करना है। एगग्गचित्तो = मैं एकाग्रचित्त । भविस्सामि त्ति = होऊँगा, ऐसा समझकर । अज्झाइयव्वं भवइ = अध्ययन करना है । अप्पाणं = मुझे । ठावइस्
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= धर्म में स्थित होने के लिये । अज्झाइयव्वं भवइ = अध्ययन करना है। ठिओ = यदि मैं अपने धर्म में स्थिर होऊँगा तो । परं = दूसरों को भी । ठावइस्सामित्ति = स्थिर करूँगा इसलिये । अज्झाइयव्वं भवइ = अध्ययन करना है । चउत्थं पयं भवइ = यह अन्तिम चतुर्थ पद है । य = और । इत्थ सिलोगो भवइ = यहाँ श्लोक भी है। वह इस प्रकार है
भावार्थ-भाव अन्वयार्थ में स्पष्ट है ।
हिन्दी पद्यानुवाद
नाणगग्गचित्तोय, ठिओ य ठावयई परं । सुयाणि य अहिज्जित्ता, रओ सुयसमाहिए ॥ 3 ॥
स्थिर रह पर को दृढ करता, पा ज्ञान बनाकर शान्त हृदय । शास्त्रों को पढ़ रत रहता है, श्रुत समाधि में साधु हृदय ।।
अन्वयार्थ-सुयसमाहिए = श्रुत समाधि में । रओ = रमण करने वाला मुनि । य = और। नाणमेगग्गचित्तो = प्रथम ज्ञान प्राप्त करता है, फिर एकाग्र चित्त होता है। ठिओ = स्वयं ज्ञान - धर्म में स्थिर होता है । य = फिर । परं = दूसरे को । ठावयई (ठावई) = धर्म में स्थिर करता है । य सुयाणि = और इस प्रकार शास्त्रों को । अहिज्जित्ता = पढ़कर ये चार लाभ प्राप्त करता है ।
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भावार्थ-लौकिक अध्ययन से क्योंकि साक्षरता, अर्थ-लाभ, स्थान- लाभ, वक्तृत्व-लाभ आदि प्राप्त होते हैं, इसलिए शिक्षार्थी नौकरी या अर्थ-लाभ के लिये पढ़ता है। किन्तु सम्यक् श्रुत के शिक्षण से चार लाभ होते हैं-1. अध्ययन के द्वारा श्रुत ज्ञान प्राप्त होता है। 2. मन की एकाग्रता होती है। 3. धर्म में स्थित होता है। 4. अन्य को धर्म में स्थिर करता है । इस प्रकार श्रुत समाधि में रत रहने वाला इन चार लाभों को प्राप्त करता है ।
चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ तं जहा - 1. नो इह लोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, 2. नो परलोगट्टयाए तवमहिट्टिज्जा, 3. नो कित्तिवण्ण-सद्द सिलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा 4. नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिट्टिज्जा । चउत्थं पयं भवइ । भवइ य इत्थ सिलोगोहिन्दी पद्यानुवाद
तप-समाधि के चार भेद, वे इस प्रकार होते जैसे । लोक-लब्धि लाभेच्छा वाला, तप नहीं करे कोई वैसे ।।