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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
उन गुण सागर आचार्यों के, मेधावी सुनकर सुघड़ वचन ।
जो पंच महाव्रत रत त्रिगुप्त, क्रोधादि रहित वह पूज्य श्रमण ।। अन्वयार्थ-मेहावि = जो मेधावी । तेसिं = उन । गुणसायराणं = गुणसागर । गुरूणं = गुरुजनों के । सुभासियाई = सुभाषित वचनों को । सोच्चाण = सुनकर । चरे = उन पर आचरण करता है । पंचरए = पाँच महाव्रतों में रत रहता है। तिगुत्तो = तीन गुप्तिओं से गुप्त रहता है। चउक्कसायावगए = और क्रोध आदि चार कषायों से दूर रहता है । स = ऐसा वह । मुणी = मुनि । पुज्जो = लोक में पूज्य होता है।
भावार्थ-प्रगतिशील विनीत शिष्य-गुणसागर गुरुओं के सुभाषित वचनों को सुनकर अनसुना नहीं करता, किन्तु गुरु के उपदेशानुसार उन वचनों पर आचरण करता है, पाँच महाव्रतों में रत रहता है, मनवचन-काय गुप्ति से गुप्त रहता है और क्रोध आदि चार कषायों को दूर करता है। ऐसा विनीत शिष्य पूज्य होता है।
गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी, जिणमयणिउणे अभिगमकुसले। धुणिय रयमलं पुरेकडं, भासुरमउलं गई गओ ।।15।।
त्ति बेमि ।। हिन्दी पद्यानुवाद
कर गुरुपद सेवन सतत साधु, हो जिनमत निपुण अतिथि पूजक।
कर नष्ट पूर्वकृत रजमल को, हो दिव्य अतुल पद का पालक।। अन्वयार्थ-इह = इस लोक में । गुरुं = गुरुदेव की। सययं = निरन्तर । पडियरिय = सेवा करके । जिणमय णिउणे = जिनमत में निपुण और । अभिगमकुसले = विनयाचार में कुशल । मुणी = मुनि । पुरेकडं = पूर्वकृत । रयमलं = कर्म-मल को । धुणिय = क्षय करके । भासुरं = प्रकाशमान । अउलं = अतुल-अनुपम-श्रेष्ठ । गई = गति को । गओ = प्राप्त करता है। त्ति बेमि = ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ-शास्त्रकार गुरु के उपदेश के अनुसार चलने का लाभ बताते हैं कि इस लोक में गुरुदेव की सतत सेवा करने वाला मुनि जिनमत में निपुण और विनयाचार में कुशल होता है वह पूर्वकृत कर्म-रज को आत्मा से अलग करके प्रकाशमान अतुल-सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है। उसको भवसागर में फिर भटकना नहीं पड़ता। ऐसा मैं कहता हूँ।
।। नौवाँ अध्ययन-तृतीय उद्देशक समाप्त ।। S9868852888888888888888888888888