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[दशवैकालिक सूत्र
भावार्थ-संसार में वही साधु पूज्य है जो रसना पर विजय प्राप्त करता है । रस लोलुपी नहीं है। जादूगर की तरह संसार को खेल दिखाकर मान्त्रिक-तान्त्रिक प्रयोगों से प्रभावित नहीं करता । कभी माया और चुगली नहीं करता । दीन भाव से रहित समभाव में रहता है । दूसरों से अपनी महिमा नहीं कराता और वह स्वयं आत्म-श्लाघा करता है। ऐसा खेल-क्रीड़ादि कौतूहल से रहित निरुत्सुक पुरुष ही लोक में पूज्य होता है।
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गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहुगुण मंच साहू | वियाणिया अप्पगमप्पएण, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ।।11।।
हिन्दी पद्यानुवाद
गुण से साधु अवगुणी असाधु, अवगुण छोड़ो गुण ग्रहण करो । जानो अपने को अपने से, सम राग-द्वेष हो पूज्य बनो ।
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अन्वयार्थ-गुणेहि (गुणेहिं) = गुणों से । साहू = साधु होता और । अगुणेहि (अगुणेहिं ) दुर्गुणों से । असाहू = असाधु होता है। साहुगुण = साधु के गुणों को । गिण्हाहि = ग्रहण कर । असाहू मुंच = असाधु के दुर्गुणों को छोड़ दे। अप्पएणं = अपने से। अप्पगं = अपनी आत्मा को । वियाणिया = जानकर । जो = जो । रागदोसेहिं = राग और द्वेष के प्रसंग में । समो = सम रहता है । स = वह । पुज्जो = पूज्य है ।
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भावार्थ-केवल वेष से कोई साधु नहीं होता । साधुता का सम्बन्ध साधना के गुणों से है । जो संयम के गुणों का पालन करता है, वह साधु है । अवगुणों से असाधु कहलाता है। इसलिये कल्याणार्थी को कहा गया है कि वह साधु, गुणों को ग्रहण करे और संयम विरोधी दुर्गुणों का परित्याग करे । इस प्रकार जो आत्मा से आत्मा को पहचान कर राग-द्वेष के निमित्तों में समभाव रखता है, वह लोक में पूज्य होता है । वेष तो इस आत्मा ने कई बार धारण किया है पर आवश्यकता है, वेष के अनुरूप करणी की। कहा भी है- “बाना बदले सौ-सौ बार । बान बदले तो खेवो पार ।”
तहेव डहरं व महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पव्वइयं गिहिं वा ।
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हिन्दी पद्यानुवाद
नो वि खिसएज्जा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ।।12।।
वैसे जो बाल वृद्ध महिला, नर संयत और असंयत को । पूज्य वही निन्दा खिंसा, अभिमान क्रोध को तज देखो ||
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अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही साधु असाधु की तरह जो । डहरं = बालक । व = या । महल्लगं = वृद्ध । वा = अथवा । पव्वइयं = दीक्षित । वा = अथवा । गिहिं इत्थी ( इत्थिं / इत्थीं) पुमं = गृहस्थ