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[दशवैकालिक सूत्र
रहते हैं, जो समभाव से सह लेता है, वह लोक में पूज्य है। क्योंकि अर्थी लोग लोह के तीखे काँटों पर खेल करते हैं, शस्त्र से अंग-उपांग कटा लेते हैं, तलवार की धार को सह लेते हैं, पर बिना स्वार्थ- दुर्वचन को सहन करना उनके लिये भी कठिन है। सच्चे सन्त दुर्वचन के घाव को भुला देते हैं, इसलिये वे पूज्य होते हैं
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मुहुत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, अओमया तेऽवि तओ सुउद्धरा । वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ।।7।।
हिन्दी पद्यानुवाद
क्षणभर के दुःखद लोह कंट, जो सहज दूर हो सकते हैं। दुर्वचन-कंट से मुक्ति कठिन, वैरानुबंध भय करते हैं ।। अन्वयार्थ - अओमया = लोहे के। कंटया = काँटे । मुहुत्तदुक्खाउ = मुहूर्त्त भर के लिये दुःखदायी । हवंति = होते हैं । तेऽवि = और वे । तओ = उस अंग से। सुउद्धरा = सहज निकाले भी जा सकते हैं किन्तु। वाया दुरुत्ताणि = वाणी के कटु वचन । दुरुद्धराणि = निकालने कठिन होते हैं। वेराणुबंधीणि = वे वैरानुबंधी - वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले । महब्भयाणि = अत्यन्त भयंकर होते हैं ।
भावार्थ-दुर्वचन और लोहे के बाणों की तुलना की जाय, तो प्रतीत होगा कि लोह के तीखे काँटे केवल मुहूर्त्त भर के लिये दु:खदायी होते हैं, फिर वे शरीर से कुशल चिकित्सक द्वारा निकाले भी जा सकते हैं । किन्तु वचन के कटु शब्द सरलता से निकाले नहीं जा सकते। वे दुर्वचन वैर-विरोध को बढ़ाने वाले और अति भयंकर होते हैं।
समावयंता वयणाभिघाया, कण्णं-गया दुम्मणियं जणंति । धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहइ स पुज्जो ||8||
हिन्दी पद्यानुवाद
दुश्शब्द - घात कानों में जब, होते मन मलिन बनाते हैं। शूराग्र दान्त जो धर्म समझ, सहते वे पूज्य कहते हैं ।।
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अन्वयार्थ-समावयंता = सामने आते हुए। वयणाभिघाया = वचन के प्रहार । कण्णं गया = कर्णगत होने पर । दुम्मणियं दौर्मनस्यभाव। जणंति = उत्पन्न करते हैं। जो जिइंदिए = पर जो जितेन्द्रिय मुनि है । परमग्गसूरे = वीर शिरोमणि है । धम्मुत्ति = कटु वचन सहन करना धर्म है। किच्चा = ऐसा समझ कर । सहइ स = उनको सहन करता है वह । पुज्जो = लोक में
पूज्य है।
भावार्थ-संसार में ई प्रकार के शूर होते हैं। शास्त्र में चार प्रकार के शूर कहे गये हैं, युद्ध शूर,