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नौवाँ अध्ययन]
[267 स्त्री-पुरुष की। नो हीलए = हीलना नहीं करता । य = और । खिसएज्जा (खिंसइज्जा) = बार-बार निन्दा । नो वि = नहीं करता तथा । थंभं च कोहं च = अहंकार और क्रोध का । चए = त्याग करता है। स = वह । पुज्जो = लोक में पूज्य होता है।
भावार्थ-साधु का प्राणि मात्र से मैत्रीभाव होता है । इस दृष्टि से प्रभु ने कहा है कि जो साधु बालकवृद्ध, स्त्री-पुरुष, प्रव्रजित-दीक्षित या गृहस्थ में से किसी की भी हीलना नहीं करता, बार-बार निंदा भी नहीं करता, सबको आत्मवत् समझकर न किसी से अहंकार करता है और न ही किसी पर क्रोध करता है, वही संसार में पूज्य होता है। ऐसे सन्त का किसी से वैर-विरोध नहीं होता और उसका भी कोई वैरी-विरोधी नहीं होता।
जे माणिया सययं माणयंति, जत्तेण कण्णं व निवेसयंति ।
ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइंदिए सच्चरए स पुज्जो।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
___पा मान सतत सम्मान करे, सत्कुल में पुत्रीवत् आगे कर ।
है पूज्य दान्त और सत्यलीन, जो मान्यों का मान करे बढ़कर ।। अन्वयार्थ-जे = जो शिष्य । माणिया (माणिआ) = मान्य पुरुषों का । सययं = नित्य । माणयंति = सम्मान करते हैं अथवा शिष्यों द्वारा मान प्राप्त आचार्य शिष्यों को श्रुत ज्ञान-दान विद्यादान आदि देकर सम्मानित करते हैं। व = जैसे । कण्णं = योग्य पिता अपनी कन्या को । निवेसयंति = योग्य कुलीन पति ढूँढकर उससे विवाह करके उसे उच्च कुल में स्थापित करते हैं, वैसे ही आचार्य । जत्तेण = यत्नपूर्वक अपने शिष्यों को साधना में स्थापित करते हैं। ते माणरिहे = उन सम्मान योग्य । जिइंदिए = जितेन्द्रिय । तवस्सी = तपस्वी और । सच्चरए = सत्यरत गुरुओं का । माणए = सम्मान करता है। स = वह मुनि शिष्य । पुज्जो = लोक में पूज्य होता है।
भावार्थ-विनय का लाभ समझकर शिष्य गुरुजनों का मान करते हैं और शिष्यों द्वारा सम्मानित गुरु भी उनको शास्त्र ज्ञान विद्यादान आदि देकर योग्य बनाते हैं जैसे कि माता-पिता यत्न पूर्वक अपनी कन्या को योग्य बनाकर योग्य कुलीन पति से विवाह कराकर अच्छे कुल में स्थापित करते हैं। वैसे ही शिक्षा एवं संस्कार से अलंकृत शिष्य को गुरु श्रेष्ठ संयम-मार्ग में स्थापित करते हैं। ऐसे उन माननीय, तपस्वी और जितेन्द्रिय तथा सत्यरत गुरु का जो शिष्य हृदय से सम्मान करता है, वह पूज्य है।
तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सोच्चाण मेहावि सुभासियाई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउक्कसायावगए स पुज्जो ।।14।।