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नौवाँ अध्ययन]
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द्वितीय उद्देशक दूसरे उद्देशक में विनय की महिमा बताते हुए शिक्षा देते हैंमूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाओ पच्छा समुविंति साहा।
साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ सि पुप्फं च फलं रसो य ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
होता स्कन्ध विटप जड़ से, फिर शाखा और प्रशाखा भी।
पत्र फूल और फल होते, भर जाता है उसमें रस भी ।। अन्वयार्थ-दुमस्स = वृक्ष के । मूलाओ = मूल से । खंधप्पभवो = स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। खंधाओ = स्कन्ध के । पच्छा = पश्चात् । समुविंति साहा = शाखा प्रकट होती है। साहप्पसाहा = शाखा से प्रशाखाएँ । पत्ता = प्रशाखा के पत्र । विरुहंति = प्रकट होते हैं । तओ = पत्तों के पश्चात् । सि = उस वृक्ष के । पुष्पं च फलं = फूल और फल । रसो य = तथा रस उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ-जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध (धड़) प्रकट होता है और स्कन्ध (धड़) से शाखाएँ निकलती हैं, शाखाओं से प्रशाखाएँ फूटती हैं, प्रशाखाओं से पत्ते और फिर उस वृक्ष के फूल, फल और रस की उत्पत्ति होती है। मूल यदि हरा-भरा रहता है, तो वृक्ष के सभी अंग-स्कन्ध, शाखा-प्रशाखा आदि समृद्ध रहते हैं।
एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो।
जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, णिस्सेसं चाभिगच्छइ ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद
ऐसे ही विनय धर्म की जड़, उसका उत्कृष्ट मोक्ष है फल।
जिससे कीर्ति निधि शास्त्रों की, प्राप्ति रूप मिलता है फल ।। अन्वयार्थ-एवं धम्मस्स = ऐसे ही धर्मवृक्ष का । मूलं = मूल । विणओ = विनय है। से = उसका । परमो = परम फल । मुक्खो = मोक्ष है। जेण कित्तिं = जिस विनय से साधक कीर्त्ति । सुयं सिग्धं च = श्लाघनीय श्रुत और । णिस्सेसं = मोक्ष को। अभिगच्छइ = प्राप्त करता है।
भावार्थ-वृक्ष की तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उस धर्म का उत्कृष्ट फल है। विनय के द्वारा साधक यश-कीर्ति, श्लाघ्य श्रुत और नि:श्रेयस् के फल को प्राप्त करता है। विनय का मूल दृढ़ होने पर साधक श्रुत-धर्म, चारित्र-धर्म और तप-संयम की विधिवत् आराधना करते हुए अन्त में सुलभता से सिद्धि प्राप्त कर लेता है।