________________
नौवाँ अध्ययन]
[255 भावार्थ-गृहस्थ लोग लौकिक सुख-सामग्री के उपार्जन हेतु और अपने अथवा परिजनों के लिये भोग-सामग्री उपलब्ध कराने हेतु, अनेक प्रकार के शिल्प, कला, उद्योग, रंगाई, छपाई, सिलाई, लेखन, भाषण आदि में कुशल बनने के लिये शिक्षा ग्रहण करते हैं। शिक्षण-काल में उनको भी अपने शिक्षक आचार्यों का बड़ा आदर रखना और उनके नाना प्रकार के आदेशों का पालन करना पड़ता है।
जेण बंधं वहं घोरं, परियावं च दारुणं ।
सिक्खमाणा नियच्छंति. जुत्ता ते ललिइंदिया।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद
जिससे कठिन मार और बन्धन, दारुण परिताप प्राप्त होता।
कला सीखने वाले कोमल, तन को सब सहना होता ।। अन्वयार्थ-ते = वे। ललिइंदिया (ललिइंदिआ) = रमणीय इन्द्रियों वाले (सुकोमल शरीर वाले)। जेण = जिस शिक्षण के साथ । जुत्ता = लगे हुए हैं वहाँ । सिक्खमाणा = शिक्षण पाते हुए वे । वहं घोरं = घोर प्रहार और । च = और । दारुणं = भयंकर । परियावं (परिआवं) = परिताप-पीड़ा। नियच्छंति (निअच्छंति) = प्राप्त करते हैं।
___ भावार्थ-प्राचीन काल की शिक्षा पद्धति में कलाचार्य द्वारा छात्रों को मारना, पीटना, कभी शृङ्खला आदि से बांध देना, खाने-पीने को नहीं देना आदि दारुण कष्ट भी दिये जाते रहे हैं। राजकुमार हो या श्रेष्ठिपुत्र, ब्रह्मपुत्र हो अथवा शूद्रपुत्र, सबके साथ समान व्यवहार करते हुए उनके योग्य शिक्षण दिया जाता था । कलाचार्य पूर्ण स्वतन्त्र थे। आज के वेतन भोगी शिक्षकों की तरह वे पराधीन नहीं थे। शिक्षणकाल में पूरे समय छात्र, आचार्य के निर्देशन ही में ही सब कुछ करता था, बिना उनकी अनुमति के कोई काम नहीं हो सकता था। राज्य सत्ता का भी उन पर कोई शासन नहीं था। बल्कि राज्य सत्ता उनके सम्मुख नतमस्तक थी।
तेऽवि तं गुरुं पूयंति, तस्स सिप्पस्स कारणा।
सक्कारंति नमसंति, तुट्ठा निद्देसवत्तिणो ।।15।। हिन्दी पद्यानुवाद
वे भी शिल्प सीखने को, उस गुरु की पूजा करते हैं।
आज्ञा में सन्तुष्ट हृदय, सत्कार वन्दना करते हैं।। अन्वयार्थ-तेऽवि = वे राजकुमार भी। तस्स = उस । सिप्पस्स = शिल्पकारी कुंभकारी, चित्रकारी आदि कारीगरी का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा के । कारणा = कारण । तं गुरुं = उस कलाचार्य गुरु की। पूयंति (पूअंति) = पूजा करते हैं। सक्कारंति = उन्हें सत्कार देते हैं । नमसंति = नमस्कार करते हैं। तुट्ठा = सन्तुष्ट होकर । निद्देसवत्तिणो = गुरु-आज्ञा का पालन करते हैं।