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नौवाँ अध्ययन
[257 नीचे रखे । चलते समय गुरु से जरा पीछे चले, नीचा होकर गुरु चरणों में वन्दन करे और नीचा झुककर ही करबद्ध प्रणाम करे । शय्या-आसन नीचे होने से दर्शनार्थी को भी यह जानने में कठिनाई नहीं होती कि इनमें गुरु कौन है और शिष्य कौन है।
संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि।
खमेह अवराह मे, वइज्ज न पुणुत्ति य ।।18।। हिन्दी पद्यानुवाद
गुरु का शरीर और उपधि अगर, भूले भी तन से छू जाये।
अपराध क्षमा हो बोले मुनि, फिर ऐसा कभी न हो पाये ।। अन्वयार्थ-काएणं = अपने शरीर । तहा = तथा । उवहिणामवि = वस्त्र आदि उपकरणों से भी। संघट्टइत्ता = संघट्ट-स्पर्श भूल से हो जाये तो कहे कि हे भगवन् । मे = मेरा । अवराह = अपराध । खमेह = क्षमा करें । य = और । न पुणुत्ति (न पुणत्ति) = फिर ऐसा मैं नहीं करूँगा । वइज्ज = ऐसा बोले ।
भावार्थ-जिनधर्म विनय प्रधान धर्म है। इसमें गुरु को देवतुल्य मानकर उनका बड़ा आदर किया जाता है। बैठने, उठने में उनके शरीर या आसन आदि को पैर नहीं लगे, इसकी पूरी सतर्कता रखी जाती है। ध्यान रखते हुए भी कभी अपने शरीर या ओघे आदि उपकरणों से आचार्य का संघट्टा हो जाय तो अपने अपराध की क्षमा माँगे और बोले कि हे भगवन् ! फिर से ऐसी गलती नहीं करूँगा।
दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहइ रहं।
एवं दुब्बुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुव्वइ ।।19।। हिन्दी पद्यानुवाद
रथ खींचे जैसे मंद बैल, हो प्रेरित तथा पीटने पर।
वैसे ही अविनीत शिष्य, गुरु कार्य करे बहु कहने पर ।। अन्वयार्थ-वा = जैसे । दुग्गओ = दुष्ट बैल । पओएणं = लकड़ी आदि से । चोइओ = प्रेरित होकर । रहं वहइ = रथ का वहन करता है। एवं = इसी प्रकार । दुब्बुद्धि = दुर्बुद्धि शिष्य । वुत्तो वुत्तो = आचार्य के बारबार कहने से। किच्चाणं = उनके कार्य को । पकुव्वइ = करता है।
भावार्थ-जातिमान् बैल बिना चाबुक के बराबर चलता है। किन्तु दुष्ट बैल चाबुक की मार खाकर ही रथ का वहन करता है। ऐसा ही दुर्बुद्धि शिष्य का स्वभाव होता है कि वह आचार्य के बारबार कहने पर ही कोई काम करता है। अच्छे शिष्य को संकेत मात्र से ही काम में लग जाना चाहिये, इससे आचार्य और शिष्य दोनों की सन्तुष्टि होती है।