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[दशवैकालिक सूत्र आलवंते लवंते वा, न निसिज्जाए पडिस्सुणे।
मोत्तूणं आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे ।।20।। हिन्दी पद्यानुवाद
गुरु कहें एक या बार-बार, सुन उसे न बैठे आसन पर ।
अति विनय भाव से सुने उसे, मुनि-धीर शीघ्र आसन तज कर ।। अन्वयार्थ-आलवंते = गुरुदेव के एक बार बुलाने पर । वा = अथवा । लवंते = बार-बार बुलाने पर । धीरो = धीर शिष्य । निसिज्जाए = निषिद्या यानी आसन पर बैठे-बैठे। न पडिस्सुणे = उत्तर नहीं दे, किन्तु । आसणं = आसन को । मोत्तूणं = छोड़कर । सुस्सूसाए = विनय पूर्वक सुने और । पडिस्सुणे = फिर उत्तर दे।
भावार्थ-विनीत शिष्य से काम कराने में आचार्य को कष्टानुभव नहीं करना पड़े, इसलिये शिष्य को ध्यान दिलाया गया है कि वह एक बार या बार-बार बुलाने पर अपने आसन पर बैठे-बैठे ही उत्तर नहीं दे, किन्तु बुद्धिमान् भिक्षु आसन छोड़कर विनय भाव से उत्तर प्रदान करे । यह जिनशासन का आदर्श है, जो बड़ेबड़े पण्डितों को चकित कर देता है । एक घटना इस प्रकार है
एक समय की बात है कि आचार्य से विनय का उपर्युक्त वर्णन सुनकर एक पण्डित ने कहा-“महाराज इस प्रकार के विनय का पालन करने वाले शिष्य चौथे आरक में मिलते होंगे। आज पंचम काल में तो मिलने दुर्लभ हैं।” आचार्य ने कहा-“नहीं, ऐसी बात तो नहीं है।" ऐसा कहकर आचार्य ने अपने शिष्य को पुकारा । आवाज सुनते ही शिष्य उपस्थित हो गया, किन्तु देखा कि गुरु कायोत्सर्ग में हैं, वह लौट गया । क्षण भर के पश्चात् गुरु ने फिर पुकारा । शिष्य अविलम्ब उपस्थित हुआ। परन्तु अब भी देखता है कि गुरु ध्यानस्थ हैं, तो पुन: लौट गया। यों सात बार गुरु ने पुकारा और शिष्य सातों बार बेचूक उपस्थित होता रहा। उसने जरा-सा भी नाक में सल नहीं डाला । यह देखकर पण्डित को यह कहना पड़ा कि गुरुदेव ! मुझे आपने जैसा सुनाया, वैसा विनय इस शिष्य में देख लिया । धन्य हैं आप जैसे गुरु और ये विनयशील शिष्य । संसार में ऐसा अन्य उदाहरण मिलना कठिन है। (नोट-यह गाथा संख्या 20 किसी-किसी प्रति में नहीं भी मिलती।)
कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ताण हेउहिं।
तेण तेण उवाएण, तं तं संपडिवायए ।।21।। हिन्दी पद्यानुवाद
ऋतु के अनुसार समझ आशय, गुरु हित प्रिय वस्तु माँग लावे। कर्तव्य शिष्य का सदा यही, जैसे हो गुरु को हर्षावे ।।