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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
संभव है सिर से गिरि फूटे, क्रुद्ध सिंह भी ना खाए।
कुंतल नोक नहीं भेदे, पर मोक्ष न गुरु निंदक पाए ।। अन्वयार्थ-सियाहु = कदाचित् कोई । सीसेण = सिर की टक्कर से । गिरिं पि भिंदे = पर्वत का भी भेदन करदे । सिया हु = कदाचित् । कुविओ सीहो = क्रुद्ध सिंह भी । न भक्खे = भक्षण न करे । व = एवं । सिया = कदाचित । सत्तिअग्गं = भाले का अग्रभाग । न भिंदिज्ज = प्रहार से भेदन नहीं करे । यावि = किन्तु । गुरुहीलणाए = गुरु की हीलना करने वाले को तो कभी। न मुक्खो = मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
भावार्थ-पर्वत भेदन, सिंह का भक्षण न करना आदि जो दुष्कर कर्म हैं कदाचित् विद्याबल आदि से यह सब सम्भव हो जाये । इनसे होने वाला कष्ट टल जाये । परन्तु गुरुजनों की आशातना से होने वाला भवभ्रमण का दु:ख किसी तरह नहीं टल सकता।
आयरियपाया पुण अप्पसण्णा, अबोहि आसायण णत्थि मुक्खो।
तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिज्जा ।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद
आचार्य चरण हों अप्रसन्न, अपमान अबोधि वश मोक्ष नहीं।
अतएव मोक्ष सुख अभिलाषी, गुरु कृपा प्राप्त कर रमे सही।। अन्वयार्थ-आयरियपाया पुण = आचार्यचरण के। अप्पसण्णा = अप्रसन्न होने से । अबोहि = बोधि-लाभ नहीं होता, क्योंकि । आसायण = गुरु की आशातना से । मुक्खो = मोक्ष । णत्थि = नहीं होता है। तम्हा = इसलिये। अणाबाह = निराबाध । सुहाभिकंखी = सुख की आकांक्षा वाला। गुरुप्पसायाभिमुहो = गुरुदेव की इच्छा के अनुकूल । रमिज्जा = रमण करे-विचरे ।
__ भावार्थ-क्योंकि आचार्य देव की अप्रसन्नता अबोधि जनक होती है, अत: शास्त्र कहता है कि गुरु की आशातना करने वाले को मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसलिये गुरु की आशातना को हानिप्रद जानकर निराबाध सुख की इच्छा वाला मुनि सदा गुरुजनों की इच्छा के अनुरूप विचरण करे अर्थात् सदा उनकी सेवा भक्ति में तल्लीन रहे।
जहाहि अग्गी जलणं नमसे, नाणाहुइमंतपयाभिसित्तं । एवायरियं उवचिट्ठइज्जा, अणंतणाणोवगओ वि संतो ।।11।।