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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
हो परमक्रुद्ध अहि जीवन का, करता विनाश कुछ और नहीं।
पर रुष्ट गुरु के होने पर, आशातना अबोधि से मोक्ष नहीं।। अन्वयार्थ-आसीविसो वा वि = दृष्टि विष सर्प तो। परं = अत्यन्त । सुरुट्ठो = कुपित होकर भी। जीवनासाउ = एक जीवन में ही प्राण हानि से । परं = अधिक । किं = और क्या । नु कुज्जा = कर सकता है किन्तु । आयरियपाया = आचार्य गुरुदेव । अप्पसण्णा = अप्रसन्न हुए तो । अबोहि = अबोधि प्राप्त होती है। आसायण = और इस आशातना से उसको । णत्थि मुक्खो = मोक्ष प्राप्त नहीं होता तथा भव-भव में उसको अनेकानेक जन्म-मरण कराती है।
भावार्थ-सर्प और गुरु की आशातना की तुलना करते हुए शास्त्रकार समझाते हैं कि सर्प का काटा हुआ तो एक बार दु:ख पाता है, उग्रविष वाला सर्प भी रुष्ट हुआ तो एक बार प्राण हरण कर सकता है। परन्तु आचार्य अगर अप्रसन्न हुए तो सम्यग् दर्शन आदि आत्म गुणों की प्राप्ति नहीं हो पाती । गुरु की आशातना करने के कारण वह शिष्य भव-भव में कष्ट पाता है और उसकी सहज मुक्ति नहीं होती है।
जो पावगं जलियमवक्कमिज्जा, आसीविसं वा वि हु कोवइजा।
जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी, एसोवमासायणया गुरूणं ।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो अग्नि ज्वाल पर पाँव धरे, या नागनाथ को क्रुद्ध करे ।
जो जीने के हित विष खाये, यह उपमा गुरु अपमान धरे ।। अन्वयार्थ-जो = जो कोई अहंकारी । जलियं = जलती हुई। पावगं = आग को । अवक्कमिज्जा = पैरों से कुचलता है । वा वि हु = अथवा । आसीविसं = दृष्टि विष सर्प को कोई । कोवइज्जा = क्रुद्ध करता है। वा जो = अथवा जो । जीवियट्ठी = जीने की इच्छा से। विसं खायइ = विष का भक्षण करता है। गुरूणं = गुरुजनों की । आसायणया = आशातना के लिये । एसोवमा = यही उपमा समझनी चाहिये।
भावार्थ-गुरु की आशातना कैसी भयंकर होती है, इसे शास्त्रकार दृष्टान्त से समझाते हैं कि यदि कोई जलती अग्नि को नंगे पैरों से कुचलकर कुशलता से रहना चाहे, दृष्टि विष सर्प को कुपित कर के जीवित रहना चाहे और कालकूट विष का भक्षण कर के जीना चाहे तो जैसे यह सब सम्भव नहीं हो सकता, वैसे ही यही उपमा गुरुओं की आशातना करने वालों के लिये दी जा रही है।
सिया हु से पावय णो डहिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे। सिया विसं हलाहलं न मारे, न या वि मुक्खो गुरुहीलणाए।।7।।