________________
240]
[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-थंभा व कोहा = अहंभाव तथा क्रोध । व मयप्पमाया = अथवा मद और प्रमाद के दुर्गुणों के वश में होने के कारण । गुरुस्सगासे = जो शिष्य गुरु के समीप । विणयं = कल्याण-मार्ग की, विनय-मार्ग की। न सिक्खे = शिक्षा प्राप्त नहीं करता । सो चेव उ = ऐसे दुर्गुण । तस्स = उस शिष्य के। अभूइभावो = ज्ञानादि गुणों के विनाश के कारण वैसे ही हो जाते हैं। व = जैसे। कीयस्स = बाँस का। फलं वहाय = फल उसके विनाश का कारण । होइ = हो जाता है।
__ भावार्थ-अहंकार, क्रोध, माया-कपट, प्रमाद रूपी दुर्गुणों के कारण शिष्य गुरु से विनय-धर्म अर्थात् कल्याण की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता । अहंभाव के कारण गुरु के अनुशासन को अपना अपमान समझ कर वह गुरु से दूर रहना चाहता है। कभी आक्रोश की भाषा में गुरु कुछ हित की बात कहते हैं तो क्रोध करता है। ये दुर्गुण शिष्य के लिये वैसे ही विनाशकारी होते हैं जैसे बाँस के फल बाँस के लिये विनाश के हेतु होते हैं। ऐसा शिष्य गुरु से सशिक्षा भी ग्रहण नहीं कर सकता।
जे यावि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुएत्ति णच्चा।
हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो निज गुरु को मंद बाल, एवं अल्पश्रुत जान उसे ।
आशातना और अपमान करे, भव हेतु मिले मिथ्यात्व उसे ।। अन्वयार्थ-जे यावि = जो भी शिष्य । गुरुं = गुरु को । मंदित्ति = यह मंद बुद्धिवाला है ऐसा । विइत्ता = जानकर । इमे = ये अभी । डहरे = बालक है तथा । अप्पसुएत्ति = शास्त्र के अधिक जानकार नहीं हैं (अल्प श्रुत) यह। णच्चा = मानकर । हीलंति ते = गुरु की हीलना करते हैं, वे । मिच्छं पडिवज्जमाणा = मिथ्यादर्शन को प्राप्त करते हैं। गुरूणं आसायण करंति = गुरुजनों की आशातना व अविनय करते हैं।
भावार्थ-शिष्य का कर्त्तव्य है कि गुरु छोटे हों या बड़े उनकी श्रद्धापूर्वक भक्ति करे । इसके विपरीत जो भी शिष्य गुरु को मन्दबुद्धि वाले जानकर और ये अभी लघुवयस्क हैं, शास्त्र के पूर्ण जानकार नहीं हैं, ऐसा मानकर उनकी हीलना करता है-लघुता करता है, उनकी अविनय आशातना करता है, वह अपने ज्ञानादि भाव की कमी करता हुआ मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करता है।
पगईए मंदा वि भवंति एगे, डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया।
आयारमंता गुणसुट्ठिअप्पा, जे हीलिया सिहिरिव भासकुज्जा ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद
होते हैं प्रकृति मंद कोई, श्रुत बुद्ध कई बालक होते । आचार निष्ठ गुण-दृढ हीलन, पा अग्नि समान गुण भस्म करते।।