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नौवाँ अध्ययन
विणय समाही (विनय समाधि)
उपक्रम
आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि का कथन किया गया है। आचार की निधि को पाने के लिये विनय-सम्पन्नता आवश्यक है। अतएव नौवें अध्ययन में 'विनयसमाधि' का वर्णन किया जाता है।
धर्म का मूल विनय है और उसका फल मोक्ष है। जैसा कि इसी अध्ययन के दूसरे उद्देशक की दूसरी गाथा में कहा गया है
‘एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो।' विनय से तात्पर्य केवल नम्रता से ही नहीं है, अपितु आचार की विविध धाराओं से है। फिर भी विनय की दो धाराएँ अनुशासन और नम्रता अधिक स्फुट हैं, मुखर हैं।
प्रस्तुत अध्ययन में चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में आचार्य के प्रति शिष्य के विनय-गुण का प्रतिपादन करते हुए अनेक उपमाओं द्वारा आचार्य की आशातना करने का दुष्परिणाम बताया गया है। द्वितीय उद्देशक में विनय और अविनय का भेद दिखलाते हुए कहा गया है कि अविनीत को विपदा और विनीत को सम्पदा मिलती है। तीसरे उद्देशक में पूज्य के लक्षणों का निरूपण है और चौथे उद्देशक में विनय, श्रुत, तप
और आचार रूप चार समाधियों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार इस अध्ययन में विनय की सर्वाङ्गीण व्याख्या की गई है। नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से इस अध्ययन का निर्वृहण (उद्धार) हुआ है।
प्रथम उद्देशक थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे।
सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो गर्व क्रोध माया प्रमाद वश, सीखे न विनय निज गुरुजन से। हो उसका नष्ट ज्ञान वैभव, जैसे कीचक फल लगने से ।।