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आठवाँ अध्ययन]
[237 तवं चिमं संजम-जोगयं च, सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए।
सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ।।62।। हिन्दी पद्यानुवाद
यह तप संयम योग नित्य, स्वाध्याय योग का आचारी।
सैन्यास्त्र युक्त हो शूर सदृश, स्व-पर का होता हितकारी ।। अन्वयार्थ-व = जिस प्रकार । समत्तमाउहे = समस्त अस्त्र.शस्त्रों से यक्त। सरे = शर । सेणाड (सेणाए) = चतुरंगिणी सेना के बीच । अलं = रक्षा में समर्थ होता है, वैसे । इमं च तवं = इस बारह प्रकार के तप में । संजमजोगयं = संयम यानी वृत्तियों का निग्रह करने में । च = और जो । सया = सदा । सज्झाय जोगं = वाचना-पृच्छा आदि स्वाध्याय योग में । च = और । अहिट्ठए = अधिष्ठित रहता है, वह । अप्पणो = अपने और । परेसिं = दूसरों की रक्षा करने में । अलं = समर्थ । होइ = होता है।
__ भावार्थ-सांसारिक क्षेत्र में अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित शूर वीर योद्धा जैसे चतुरंगिणी सेना के बीच में भी स्व पर की रक्षा करने में समर्थ होता है, वैसे ही अध्यात्म के क्षेत्र में साधक तप, संयम और स्वाध्याय रूपी आध्यात्मिक शस्त्रों से युक्त काम-क्रोधादि अंतर के शत्रुओं की सेना से अपनी और दूसरों की रक्षा करने में समर्थ होता है। काम-क्रोधादि रिपुओं पर विजय पाने के लिये तप-संयम तथा स्वाध्याय से अधिक कोई अन्य कारगर साधन नहीं हो सकता । स्वाध्याय को सर्वोत्कृष्ट तप बतलाया गया है। ज्ञानियों ने कहा है कि बाह्य और आभ्यन्तर आदि बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के बराबर कोई तप नहीं है और नहीं होगा। (देखें कल्प-सूत्र भाष्य गाथा 1169)।
सज्झाय सज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे-रयस्स। विसुज्झइ जं सि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ।।63।।
हिन्दी पद्यानुवाद
स्वाध्याय ध्यान रत त्रायी का, गत पाप तपस्या रत मुनि का।
मिट जाता पाप पुराकृत सब, जैसे पावक से चाँदी का।। अन्वयार्थ-व = जिस प्रकार । जोइणा = अग्नि से । समीरियं = तपाने पर । रुप्पमलं = चाँदी का मल नष्ट हो जाता है। सज्झाय = वैसे ही स्वाध्याय और । सज्झाणरयस्स = धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में रमण करने वाले । ताइणो = षट्काय जीव के रक्षक । अपावभावस्स = निर्दोष भाव वाले । तवे रयस्स = शारीरिक, मानसिक, तप में रत । जं सि = मुनि का। पुरेकडं = पूर्वकृत । मलं विसुज्झइ = कर्ममल नष्ट हो जाता है।