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आठवाँ अध्ययन
[235 अंग-पच्चंग-संठाणं, चारुल्लविय-पेहियं ।
इत्थीणं तं न णिज्झाए, कामरागविवड्ढणं ।।58।। हिन्दी पद्यानुवाद
नारी के अंग-उपांगों को, भूक्षेप मनोहर भाषण को।
अनुराग सहित ना देखे मुनि, ये सारे काम विवर्द्धन को ।। अन्वयार्थ-इत्थीणं = स्त्रियों के। अंगपच्चंग = अंग-उपांग । संठाणं = आकार, प्रकार । चारुल्लविय = मृदु मनोहर संभाषण । पेहियं = कटाक्ष पूर्वक देखना, ये सब । कामरागविवडणं = कामराग बढ़ाने वाले हैं। तं = अत: उनको टकटकी लगाए । न णिज्झाए = नहीं देखे ।
भावार्थ-रागी हो या विरागी, संसार के दृश्य पदार्थ दोनों को दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु दोनों के देखने में अन्तर है । संयमी साधु के लिये कहा गया है कि वह स्त्रियों के अंग-उपांग और उनकी आकृति को, मृदु-मनोहर सम्भाषण को तथा उनके कटाक्ष को काम राग बढ़ाने वाला जानकर रागदृष्टि से नहीं देखे । शरीर की बदलती हुई पर्यायों का तुरन्त ध्यान रखते हुए वह यह सोचे कि तन की सुन्दरता सदा एकसी रहने वाली नहीं है। यह तो अनित्य, अशुचि और मलभृत (मल-मूत्र से भरे हुए) पात्र की तरह अस्पृश्य है।
विसएसु मणुण्णेसु, पेमं नाभिनिवेसए।
अणिच्चं तेसिं विण्णाय, परिणामं पुग्गलाण उ।।59।। हिन्दी पद्यानुवाद
शब्दादि विषय के पदगल का, परिणाम बदलना मन धर के।
वैसे मनोज्ञ विषयों में मुनि, ना करे प्रेम निश्चय करके ।। अन्वयार्थ-तेसिं = उन-शब्द-रूपादि । पुग्गलाण उ = पुद्गलों के। अणिच्चं = क्षण-क्षण बदलने वाले । परिणाम = परिणमन को । विण्णाय = जानकर संयमी । मणुण्णेसु = मनोज्ञ, शब्द, रूप, गंध आदि । विसएसु = विषयों में । पेमं नाभिनिवेसए = राग नहीं करे । मनोज्ञ में राग की तरह अमनोज्ञ में द्वेष भी नहीं करे।
__ भावार्थ-पौद्गलिक वस्तुओं का यह स्वभाव है कि अभी जो सुन्दर और शुभ दृष्टिगोचर होती है, वह क्षणान्तर में अशुभ एवं असुन्दर प्रतीत होने लगती है। दो-चार दिनों के ज्वर में सुन्दर से सुन्दर दिखने वाले बाल एवं युवा का भरा-पूरा-सुडोल चेहरा, ढीला-पीला पड़ जाता है, आँखें भीतर धंस जाती हैं और तन की कांति फीकी पड़ जाती है। फिर उस पर राग कैसा ? अतः शास्त्रकार कहते हैं कि पुद्गलों के बदलते हुए परिणमन को जानकर मुनि मनोज्ञ विषयों में राग नहीं करे।