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पाँचवाँ अध्ययन]
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दोषों को । पस्सह = देखो। च = और। मे = मेरे द्वारा । णियडिं= उसके कपटाचार को । सुणेह श्रवण करो ।
भावार्थ- जो भगवान की आज्ञा का चोर छिपकर एकाकी पीता है और समझता है कि मुझे कोई नहीं जानता उस मायाचारी के दोषों को देखो और मुझसे उसके कपटाचार को श्रवण करो ।
हिन्दी पद्यानुवाद
वड्ढइ सुंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया ।।38 ।।
बढ़ती मद-आसक्ति और, माया मिथ्या उस भिक्षुक की। अपकीर्ति अतृप्ति हरक्षण में, ऐसी असाधुता भी उसकी ।।
अन्वयार्थ-तस्स = उस । भिक्खुणो = अजितेन्द्रिय साधु की। सुंडिया = पानासक्ति और । मायामोसं = कपटपूर्ण मृषा । च = और । अयसो य = तथा अपकीर्ति । अणिव्वाणं च = अशान्ति और । सययं = निरन्तर (सतत ) । असाहुया = असाधुता (उन्मत्तता) । वड्ढइ = बढ़ती है।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-उपर्युक्त दोष के कारण उसकी पानासक्ति के साथ-साथ अपकीर्ति, अशान्ति और निरन्तर असाधुता बढ़ती रहती है।
णिच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारसो मरणंते वि, ण आराहेइ संवरं ॥139 ।।
ज्यों चोर स्वकृत दुष्कृत्यों से, है सदा व्याकुल बना रहता । दुर्बुद्धि मृत्यु क्षण तक भी वह, ना संवर आराधन करता ।।
अन्वयार्थ-अत्तकम्मेहिं = अपने दुष्कर्मों से । दुम्मई = वह दुर्मति । तेणो जहा = चोर के
समान । णिच्चुव्विग्गो = सदा उद्विग्न बना रहता है। तारिसो= वैसा साधक । मरणंते वि = मरणांत समय में भी। संवरं = संवर धर्म का । ण आराहेइ = आराधना नहीं कर पाता ।
भावार्थ-वैसा भिक्षु अपने दुष्कर्मों से चोर की तरह सदा उद्विग्न रहता है। वह अन्त समय में भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकता।
आयरिए णाराहेइ, समणे यावि तारियो ।
गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ।।40।।