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सातवाँ अध्ययन]
[203 अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही । सावज्जणुमोयणी = निश्चयकारी और सावद्य-पाप का अनुमोदन करने वाली । य = और । ओहारिणी = अवधारिणी तथा । जा = जो । परोवघाइणी से = अन्य जीवों को पीड़ा देने वाली हो वैसी । गिरा = भाषा । कोह लोह भय हास = क्रोध, लोभ, भय या हास्य वश होकर । माणवो = मानव । हासमाणो वि = हँसता हुआ भी। गिरं = भाषा को । ण वइज्जा (वएज्जा) = नहीं बोले।
भावार्थ-फिर संयमी साधु ऐसी भाषा जो पाप का अनुमोदन करने वाली हो, जो निश्चयकारी हो और अन्य जीवों को पीड़ाकारी हो, क्रोध के वश, लोभ के वश, भय के वश अथवा हँसी-मजाक में भी नहीं बोले । क्रोधादि के आवेश में बोली गई भाषा सत्य व्रत को मलिन करने वाली होती है।
सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया।
मियं अदुटुं अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहइ पसंसणं ।।55।। हिन्दी पद्यानुवाद
वाक्य शुद्धि को देख श्रमण, दे दुष्ट वचन को छोड़ सदा।
परिमित दोष रहित चिन्तन कर, वक्ता पाता सत्कीर्ति सदा।। अन्वयार्थ-स = वह । मुणी = मुनि । वक्कसुद्धिं = वाक्यशुद्धि का । समुपेहिया = अच्छी तरह विचार कर । सया = सदा । दुटुं = दुष्ट । गिरं = भाषा का । परिवज्जए = वर्जन करे । च = और । मियं = मित यानी नपे तुले शब्दों वाली। अदुटुं = निर्दोष भाषा । अणुवीइ = सोचकर । भासए = बोलता है, वह । सयाण = सत्पुरुषों के । मज्झे = मध्य में । पसंसणं = प्रशंसा को । लहइ = प्राप्त करता है।
भावार्थ-मुनि वाक्यशुद्धि की शिक्षा का सम्यक् प्रकार से विचार करके दोषयुक्त वाणी का सदा के लिए त्याग कर दे। जो विचारपूर्वक नपी-तुली दोष रहित भाषा बोलता है वह सज्जनों के समूह में प्रशंसा प्राप्त करता है। उसका व्रत भी निर्दोष रहता है।
भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुढे परिवज्जए सया।
छसु संजए सामणिए सया जए, वइज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं ।।56।। हिन्दी पद्यानुवाद
जान दोष गुण भाषा के, उसके दोषों को सदा तजे । छ: में संयत साधुता निरत, मुनि हितप्रद वाणी सतत भजे ।।
1. सुवक्कसुद्धि - पाठान्तर।